काश्मीर : दो बड़े सवाल खड़े हैं ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। सरकार दावा कर रही है कि जम्मू कश्मीर में सब कुछ पटरी पर लौट आया है, भोपाल में रह रहे जम्मू कश्मीर के छात्र इससे सहमत नहीं है। श्री नगर से पणजी भेजे गये राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी गोवा आने पर प्रसन्नता जाहिर की है। इस राज्य के बदले स्वरूप को लेकर जो कुछ कहासुना जा रहा है, उसमे दो बातें प्रमुख हैं। पहली विकास दूसरी राजनीति। फिलहाल राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया थम गई है। वैसे भी अब जम्मू-कश्मीर में राजनीति की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यहां की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के भी ठीक वैसे ही अपने एजेंडे हैं, जैसे राष्ट्रीय पार्टियों के हैं। 

अनुच्छेद 370 हटने के साथ ये सारे एजेंडे साफ हो गए। कश्मीर की हर सियासी पार्टी के सारे राजनीतिक खेलों पर विराम लग गया है। जहां तक इस क्षेत्र के पुनर्गठन के भविष्य का प्रश्न है, तो उस में कम से कम दो वर्ष लग जाएंगे, क्योंकि इस राज्य का केवल भौगोलिक विभाजन ही हुआ है। कानूनों को बदलना, बदलाव के अनुरूप संशोधन ,प्रशासन को जवाबदार बनाना होगा। दूसरे सुधारों के साथ ही शासन को खद को भी दुरुस्त करना होगा। कश्मीर के लिए आगामी दो वर्ष बहुत निर्णायक होंगे, क्योंकि अब यह राज्य नहीं है, पूर्ण केंद्रशासित प्रदेश है।

पहले विकास की बात-अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद भारत के कॉरपोरेट क्षेत्र और बड़े उद्यमियों की मानसिकता अगर बदल रही है, तो उन्हें कश्मीर में निवेश करने के लिए रास्ता तैयार करने की जरूरत है। अगर निजी क्षेत्र का निवेश और केंद्र सरकार द्वारा मूलभूत ढांचे में निवेश बढ़ता है, तो कश्मीर का कायाकल्प हो जाएगा। इन दोनों बातों के फहले अगर जुडा है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कभी कश्मीर को पर्यटन का स्वप्न लोक बनाने के बारे में सोचा था। निजी क्षेत्र और सरकार ने मिलकर अगर प्रयास किया, तो ऐसे कश्मीर का सपना साकार हो जाएगा। निवेश का एक सामूहिक प्रयास और पर्यटन में उछाल से यह सुनिश्चित होगा कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में समृद्धि आए। यदि ऐसा हुआ, तो इससे न केवल यहां आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी, बल्कि रोजगार के सृजन को भी काफी बढ़ावा मिलेगा। 

विकास के अलावा घाटी में उग्रवाद की समस्या पर भी गौर करने की जरूरत है। पिछले कुछ-कुछ वर्षों में अलग-अलग वार्ताओं में तीन सेना प्रमुखों ने यह कहा है कि उन्होंने ‘अपना काम’ कर दिया है और अब सरकार को इस मुद्दे से राजनीतिक रूप से निपटना है। अब नए परिदृश्य में भारत सरकार को कदम उठाने और यह पता लगाने की आवश्यकता है कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए? उग्रवाद का स्थानीयकरण अब भी जारी है। अंतर इतना आया है कि आतंकवाद अब दक्षिण कश्मीर तक ही सीमित हो गया है और इसकी तीव्रता में कमी आई है। पाकिस्तान से मुकाबले के लिए केंद्र सरकार का पृथक नजरिया है, उसकी भी अलग कहानी है, लेकिन अभी इस क्षेत्र के पुनर्गठन के बाद सरकार का फोकस इस बात पर रखना चाहिए कि स्थानीय आतंकवाद से कैसे निपटा जाए? 

वैसे एक और महत्वपूर्ण कारक है, जिस पर केंद्र सरकार को पहले ध्यान देना चाहिए। आखिर कश्मीर में लोग अलगाव की भावना को क्यों महसूस करते हैं? आज लाखों लोग खुद को अलग-थलग पा रहे हैं और यह भावना उनमें अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद बढ़ी है। अनुच्छेद 370 का जो एक खास एहसास था, वह खत्म हो गया है। नतीजतन, अलगाव बढ़ रहा है। यह पहली और महत्वपूर्ण चुनौती है, इस पर ध्यान देना केंद्र सरकार के लिए जरूरी है। अलगाव की इस भावना को केंद्र सरकार कैसे दूर करती है, स्थिति को कैसी संभालती है, यह स्वयं सरकार को तय करना है। 

अगर सरकार जम्मू-कश्मीर में मूलभूत ढांचा निर्माण की परियोजनाएं बड़े पैमाने पर चलाना चाहती है, अगर कश्मीर में बड़े पैमाने पर सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की योजना बनती है, तो यहां बहुत सारे रोजगार पैदा होंगे। इससे निश्चित रूप से लोगों के दिलों में पनपे अलगाव का इलाज होगा।`
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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