देश की परमाणु नीति का पुनर्मूल्यांकन जरूरी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। आने वाले समय में भारत अपनी परमाणु नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर सकता है| कारण साफ है, कई रिपोर्टों में खुलासा हुआ है कि पाकिस्तान लगातार अपनी परमाणु क्षमता में इज़ाफा कर रहा है तथा उसके पास वर्तमान में भारत से भी अधिक परमाणु हथियार मौजूद हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत का दूसरा पड़ोसी चीन भी परमाणु शक्ति संपन्न हैं। 
ऐसे में भारत की नीति में परिवर्तन इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों की दौड़ को तीव्र कर देगी।वैसे विश्व परमाणु उद्योग स्थिति रिपोर्ट 2017 से पता चलता है कि स्थापित किये गए परमाणु रिएक्टरों की संख्या के मामले में भारत का विश्व में तीसरा स्थान है। भारत अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के तहत वर्ष 2024 तक 14.6 गीगावाट बिजली का उत्पादन करेगा, जबकि वर्ष 2032 तक बिजली उत्पादन की यह क्षमता 63 गीगावाट हो जाएगी। फिलहाल भारत में 21 परमाणु रिएक्टर सक्रिय हैं, जिनसे लगभग 7 हज़ार मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इनके अलावा 11 अन्य रिएक्टरों पर विभिन्न चरणों में काम चल रहा है और इनके सक्रिय होने के बाद 8 हज़ार मेगावाट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन होने लगेगा। 

चूँकि भारत अपने हथियार कार्यक्रम के कारण परमाणु अप्रसार संधि में शामिल नहीं है, अतः 34 वर्षों तक इसके परमाणु संयंत्रों अथवा पदार्थों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिस कारण यह वर्ष 2009 तक अपनी सिविल परमाणु ऊर्जा का विकास नहीं कर सका। पूर्व के व्यापार प्रतिबंधों और स्वदेशी यूरेनियम के अभाव में भारत थोरियम के भंडारों से लाभ प्राप्त करने के लिये परमाणु ईंधन चक्र का विकास कर रहा है। भारत का प्राथमिक ऊर्जा उपभोग वर्ष 1990 से वर्ष 2011 के मध्य दोगुना हो गया था।

चीन ने परमाणु परीक्षण के पश्चात् विश्व में सर्वप्रथम नो फर्स्ट यूज़ की नीति की घोषणा की थी। इसके बाद भारत ने वर्ष 2003 में इसी प्रकार की नीति की घोषणा की। भारत एवं चीन के अतिरिक्त किसी भी परमाणु संपन्न देश ने इस नीति को नहीं अपनाया। हालाँकि रूस ओर अमेरिका सुरक्षा के लिये इसके उपयोग की बात करते रहे हैं।इस नीति का विरोध करते हुए तर्क दिया जाता है कि इससे पारंपरिक युद्ध एवं हथियारों की दौड़ में वृद्धि होगी। साथ ही यदि ऐसा देश जिसकी नीति पहले प्रयोग की नहीं है, हमला करता है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अन्य देश हमले का जवाब देने की स्थिति में हों। अतः इस नीति को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। वहीं इस नीति के पक्षधरों का मानना है कि फर्स्ट यूज़ की नीति परमाणु हथियारों की दौड़ को तेज कर देती है तथा विभिन्न देशों के मध्य अविश्वास में वृद्धि कर सकती है। साथ ही फर्स्ट यूज़ की नीति ऐसे देशों के लिये कारगर नहीं हो सकती जो फर्स्ट स्ट्राइक में पूर्णतः सक्षम न हों। इसके अतिरिक्त फर्स्ट यूज़ की नीति परमाणु हथियारों के साथ-साथ अन्य प्रकार की क्षमताओं के निर्माण में भी खर्च को बढ़ाती है।

यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में भारत की परमाणु नीति में बदलाव देखने को मिल सकता है। अब तक की नीति भारत के संदर्भ में उपयोगी साबित हुई है। यदि भारत इस नीति में परिवर्तन करता है तो अन्य वैश्विक समीकरणों को यदि कुछ समय के लिये छोड़ भी दिया जाए तो घरेलू स्तर पर आने वाली समस्याएँ चुनौती प्रस्तुत कर सकती हैं। अमेरिका जैसे देश फर्स्ट यूज़ की नीति का अनुकरण करते हैं लेकिन अमेरिका के पास ऐसे हथियार उपलब्ध हैं जिससे कुशलता पूर्वक स्ट्राइक की जा सकती है लेकिन भारत को इस प्रकार के उपकरण एवं बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना अभी शेष है। यह ध्यान देने योग्य है कि रक्षा क्षेत्र से संबंधित प्रौद्योगिकी अत्यधिक महँगी होती है एवं कोई भी देश ऐसी तकनीकी को किसी को नहीं देना चाहता। ऐसे में भारत की बजटीय क्षमता को देखते हुए इस प्रकार के बुनियादी ढाँचे एवं अत्याधुनिक उपकरणों का निर्माण आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है।

भारत और पाकिस्तान आपसी संबंधों के मामले में पहले ही कड़वाहट के दौर से गुज़र रहे हैं तथा चीन के साथ भी भारत के संबंध उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं। इसके साथ ही इन देशों के साथ भारत का युद्ध का इतिहास भी रहा है। एक वर्ष पूर्व भारत की बैलिस्टिक मिसाइल क्षमता वाली परमाणु पनडुब्बी अरिहंत ने अपना पहला अभियान पूरा किया। इस अभियान के पूरे होने के साथ ही भारत उन देशों की कतार में शामिल हो गया जिनके पास परमाणु ट्राइडेंट मौजूद है। परमाणु नीति का निर्माण कई वर्षों के विश्लेषण एवं मूल्यांकन के पश्चात् ही किया गया था। ऐसे में यदि सरकार इस नीति में कोई भी बदलाव करना चाहती है तो नीति में बदलाव से पूर्व इसके प्रभावों एवं परिणामों का गहन मूल्यांकन आवश्यक है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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