कर्नाटक के नाटक दुनिया देख रही है | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। लगता नहीं है आगामी सोमवार को भी कर्नाटक ने चल रहे सियासी प्रहसन का कोई नतीजा निकलेगा। सर्वोच्च न्यायालय में फिर कोई अर्जी दाखिल हो रही है। जो इस मामले को नया मोड़ दे सकती है, ऐसा अनुमान राजनीतिक हल्कों में है। कर्नाटक का राजनीतिक संकट दुखद है।जिस तरह सत्ता केंद्रित राजनीति में नैतिकता के पैमाने दिनोंदिन जितने लचीले होते जा रहे हैं, राजनीति उतनी ही हल्की और अतार्किक होती जा रही है। 

लगभग दो सप्ताह से कर्नाटक में चल रहा विवाद पूरे देश के लिए एक चिंता का विषय बना हुआ है। इस राजनीतिक संकट का जो चरित्र है। उससे न केवल राजनीति के प्रति लोगों का सम्मान घटा है। बल्कि इससे राजनीतिक अवसरवादिता को नया आयाम भी मिला है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के संबंध में जो फैसला दिया था, वह परोक्ष रूप से राजनीतिक विवाद को सुलझाने की जिम्मेदारी राजनेताओं पर ही छोड़ने का का अर्थ के अतिरिक्त कुछ और नहीं था।

वैसे तो ऐसे विवाद कोर्ट में ले जाना ही नहीं चाहिए और नेताओं को स्वयं कानून व नैतिकता सम्मत फैसले लेने चाहिए। यह कितनी अजीब बात है कि कर्नाटक के 16 बागी विधायकों को विधायिका पर कम और न्यायपालिका पर ज्यादा भरोसा है। ये बागी विधायक न्यायालय व पुलिस के दम पर अपनी राजनीति करना चाहते हैं। मात्र 14 महीने पहले जिन मतदाताओं ने इन विधायकों पर विश्वास जताया था, उन्हें आज बहुत अफसोस हो रहा है । उन्हें भी शायद सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद होगी, लेकिन विधायिका के शुद्ध राजनीतिक झगड़े या स्वार्थ की होड़ में सुप्रीम कोर्ट क्यों पड़े? सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष पर ही दायित्व सौंप कर उन पर यह जिम्मेदारी ही छोड़ दी और कह दिया कि बागी विधायकों को सदन में जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। जहां एक ओर इस फैसले से विधायिका के कई लोग खुश हैं, वहीं विधायिका में ऐसे लोग भी हैं, जो इस अदालती व्यवस्था को सही नहीं मानते हैं |

यह विवाद इसलिए भी और लंबा खिंच रहा है, क्योंकि विधायकों के इस्तीफों पर जल्द फैसले के लिए विधानसभा अध्यक्ष बाध्य नहीं हैं। बागी विधायक अभी विधानसभा और विधानसभा अध्यक्ष से दूर हैं, उन्हें बार-बार वापस बुलाया जा रहा है। कर्नाटक में सत्तारूढ़ कांग्रेस-जद-एस गठबंधन की पहली उम्मीद यही है कि बागी विधायकों से मिलकर उन्हें मना लिया जाए। दूसरी उम्मीद यह है कि बागी अगर न मानें, तो उन्हें किसी तरह से अयोग्य करार दिया जाए, ताकि वे भाजपा के नेतृत्व वाली भावी सरकार में मंत्री न बन सकें और केंद्र सरकार के पास 356 के अलावा और कोई विकल्प न हो | इस युक्ति का प्रयोग सहानुभूति जाती सरकार के पक्ष में बनेगी |

सही मायने में कर्नाटक विधानसभा में कामकाज नहीं, राजनीति प्राथमिकता बन गई है। कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हो या जनता दल-एस, तीनों दलों को सत्ता की दौड़ में अपने सम्मान बलि तक देने को उधार बैठे हैं । लाख टके का सवाल है कि “बिना सम्मान या बिना नैतिक बल के जो भी सरकार बनेगी या बचेगी, वह कर्नाटक या देश में कितना योगदान दे पाएगी”, सिर्फ नकारात्मकता ही उसका योगदान होगा। राजनीति के साथ ही प्रजातंत्र की लोकलाज और संविधान का भी महत्व शेष है। गोवा हो या कर्नाटक या भविष्य में मध्य प्रदेश या राजस्थान,लोकसभा चुनाव से अर्जित भाजपा की ताकत सरकारें गिराने के लिए जनता ने भाजपा को नहीं दी है | सत्ता पाने के लिए षड्यंत्र, खरीद-फरोख्त भारत में अब नया नहीं हैं, किंतु ऐसे षड्यंत्र करने वाली पार्टियों को देर-सबेर रसातल में जाना पड़ता है, इतिहास उठा के देख लीजिये । देश हित इसी में है कि उसकी राजनीति बुरे आदर्शों को त्यागे | सारे नाटक दुनिया देख रही है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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