विश्व : जहाँ कमाओ – वही कर पटाओ | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। वैश्विक अर्थ व्यवस्था (Global Economy) में नये प्रयोग हो रहे हैं जापान में हुई जी-20 की शिखर बैठक में कुछ फैसले हुए हैं। जी-20 शिखर बैठक में डिजिटल बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर कर लगाने को लेकर बनी आम सहमति से यह आशा बंधी है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के कामकाज में आमूलचूल बदलाव आएगा। इसकी बारीकियों को समझने के लिए विशद अध्ययन की जरूरत है, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर इस समझौते को एक सामान्य कराधान व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है | यह व्यवस्था तमाम जगहों पर स्वीकार्य है,ऐसा भी नहीं है । अमेरिका जहां दुनिया की तमाम प्रमुख डिजिटल कंपनियां हैं, इस नए प्रस्ताव के खिलाफ है। जबकि ब्रिटेन और फ्रांस समेत तमाम देश इसके समर्थन में हैं। यह समर्थन और विरोध “साझा डिजिटल कर संहिता” लागू करने के लिए 2020 की प्रस्तावित समय सीमा हकीकत से दूर हो सकती है। वैसे यह सहमति इस बात की द्योतक हो सकती है कि बड़े बहुराष्ट्रीय ऑनलाइन कारोबारों में कर व्यापकता में इजाफा हो जाये । इससे ऐसी कंपनियों को आकर्षित करने में कर बचाने के उद्देश्य से छोटे देशों की प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त भी होगी।

वैसे इन दिनों वैश्विक डिजिटल कंपनियां मसलन गूगल, फेसबुक, एमेजॉन, ऐपल और तमाम अन्य को आलोचना का सामना करना पड़ रहा है ,क्योंकि वे कम कर दर वाले देशों में मुनाफा दिखाकर अपना कर घटाती थीं। भले ही अंतिम उपभोक्ता किसी भी देश में हो। यह व्यवहार कहीं से भी उचित नहीं है। ये कंपनियां एक प्रकार से कर वंचना का सहारा ले रही थीं और ले रही हैं । वे अपने क्षेत्रीय मुख्यालय को आयरलैंड, बोत्सवाना और लक्जमबर्ग जैसे देशों में स्थानांतरित करतीं हैं जहां कर दरें कम हैं। परिणामस्वरूप अन्य देशों में कारोबार से राजस्व के मोर्चे पर अर्जित लाभ पर कम दर पर कर लगता। जी-20 का प्रस्ताव ऐसे मुनाफे पर एक साझा न्यूनतम कर लागू कर सकता है या फिर यह ऐसी अंतरराष्ट्रीय सहमति बना सकता है कि ऐसे मुनाफे पर उन स्थानों पर कर लगेगा जहां वास्तविक राजस्व प्राप्ति हुई है। भले ही कंपनी वहां मौजूद हो या नहीं। एक और विकल्प यह है कि समझौते के तहत एक देश में पंजीकृत मुनाफे को उन देशों में पुनर्आवंटित किया जाए जहां मुनाफा हुआ हो।

वैसे इस सहमति को व्यावहारिक बनाने में कई बाधाएं हैं। जैसे. डिजिटल कंपनी की कोई स्वीकार्य परिभाषा नहीं है। कई मामलों में कंपनियों के पास अलग-अलग क्षेत्रों के विविध राजस्व माध्यम हैं। उदाहरण के लिए हो सकता है कंपनी भौतिक वस्तुओं की बिक्री कर रही हो जो आयातित भी हो सकती हैं। ऐसी कंपनी क्लाउड होस्टिंग सेवा भी दे सकती है और कई देशों में सर्वर भी चला सकती है। संभव है वह विज्ञापन राजस्व एक देश से जुटाए जबकि कार्यक्रम प्रसारण दूसरे देश में करे। वह विभिन्न देशों की सीमाओं से परे फिनटेक सेवाएं भी चला सकती है। ये बातें डिजिटल की परिभाषा को जटिल बनाती हैं। तमाम सीमाओं से परे कर के उचित आकलन के लिए और कंपनियों की करवंचना या अधिकारियों के दोहरे कराधान से बचने के लिए राष्ट्रीय कर अधिकारियों के बीच उच्चस्तरीय सहयोग की आवश्यकता होगी। भारत, चीन और रूस समेत तमाम देशों की यह मांग भी इसे जटिल बनाती है कि उनके यहां संग्रहीत डेटा उनकी सीमा के भीतर ही रहे। यह मुद्दा बातचीत में गतिरोध पैदा कर सकता है।

देखा जाये तो कईबाधाओं के बावजूद, जी-20 का यह प्रस्ताव डिजिटल कारोबार के भविष्य को लेकर दुनिया के रुख में अहम बदलाव को प्रस्तुत करता है। इसका असर आगे चलकर कर संहिताओं में बदलाव के रूप में भी दिखना चाहिए। यह भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे बड़े बाजारों के अनुकूल होगा बजाय कि बोत्सवाना जैसे छोटे और टैक्स हैवन देशों के। यह बेहतर विकल्प नजर आता है: जिस देश में राजस्व अर्जित हो, अर्जित मुनाफे पर कर में उसकी भूमिका होनी ही चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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