देश चुनाव में है। सारे राजनीतिक दलों के वादे. संकल्प और वचन हमारे सामने हैं, इनमे से किसी का वादा यह नहीं है की देश में चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों के अभाव को, वे कम करेंगे जिससे देश जूझ रहा है। इन दिनों देश में छह लाख चिकित्सकों और 20 लाख स्वास्थ्यकर्मियों का अभाव है। सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने अपने ताजा अध्ययन में यह आकलनप्रस्तुत करते हुए जानकारी दी है कि इस अभाव के कारण जीवन बचानेवाली दवाओं तक लोगों की पहुंच नहीं हो पा रही है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार, हर एक हजार आबादी पर औसतन एक डॉक्टर होना चाहिए, पर भारत में 10189 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। इस वजह से हर साल लाखों लोग मौत का शिकार हो रहे हैं। डॉक्टरों की उपलब्धता न होने का असर इलाज के खर्च पर भी पड़ता है। भारत में इस खर्च का 65 प्रतिशत हिस्सा लोगों को अपनी जेब से देना पड़ता है, जिससे हर साल पांच करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी के चंगुल में फंस जाते हैं।
यह सब जानते हैं कि भारत उन देशों में है, जो स्वास्थ्य के मद में बहुत कम निवेश करते हैं। इसका नतीजा यह है कि ग्रामीण और दूर-दराज के इलाकों में चिकित्सा केंद्रों की कमी है और जो चिकित्सा केंद्र मौजूद हैं, वे बदहाल हैं। ऐसे में समय रहते उपचार न हो पाने के कारण सामान्य बीमारियां भी गंभीर हो जाती हैं। जन सामान्य सस्ते इलाज के चक्कर में नीम हकीमों के फेर में पडती है या बिना सलाह के दवा भी लेती है। यह एक आम चलन है। ऐसे में बीमारी और एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या होती है। जिससे देश के कई इलाके जूझ रहे हैं। बड़ी संख्या में मौतों का यह भी एक कारण है। विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों और बीमा योजनाओं से इस स्थिति में कुछ सुधार की उम्मीद तो है, पर बिना चिकित्सकों की संख्या बढ़ाये और संसाधनों के विस्तार के स्वस्थ भारत की संभावना को साकार नहीं किया जा सकता है। इस विषय पर किसी भी राजनीतिक दल की कोई नीति नहीं है। उदाहरण के रूप में महामारी का रूप लेते कैंसर और इसके उपचार को देखा जा सकता है। वर्ष 2014 के लांसेट रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर साल 10 लाख से ज्यादा कैंसर के नये मामले सामने आते हैं। देश एक करोड़ रोगियों के लिए सिर्फ दो हजार कैंसर विशेषज्ञ चिकित्सक ही उपलब्ध हैं। किसी की प्राथमिकता में यह विषय नहीं है।
कैंसर का इलाज बहुत महंगा है। देश प्रतिष्ठित संस्थान एम्स के आकलन के अनुसार कैंसर पर उपचार का खर्च एक सामान्य परिवार की सालाना आमदनी से भी ज्यादा है। ओंकोडॉटकॉम के एक हालिया सर्वे में पाया गया है कि 83 प्रतिशत रोगियों का सही तरीके से उपचार भी नहीं हो रहा है। कैंसर अस्पतालों में 40 प्रतिशत ऐसे हैं, जहां अत्याधुनिक साजो-सामान भी मौजूद नहीं हैं।
जनसंख्या के अनुसार डाक्टरों की उपलब्धता में भी भेदभाव है। गांवों और शहरों में चिकित्सकों की उपलब्धता में विषमता तो है ही, राष्ट्रीय स्तर पर भी बेहतर अस्पताल देश के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से में हैं। केंद्र सरकार ने 2025 तक स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च को बढ़ाकर कुल घरेलू उत्पादन का 2.5 प्रतिशत करने और 1.5 लाख स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। यह सब वो तब कर पायेगी,जब फिर से सत्ता में लौटे। भारत में आम तौर पिछली सरकार की आलोचना और उसके द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की उपेक्षा का प्रचलन है।
चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन तथा विपक्ष समेत विभिन्न पार्टियों द्वारा घोषणापत्रों में स्वास्थ्य को प्रमुख मुद्दा जरुर बनाया है, पर स्पष्ट कार्य योजना किसी के पास नहीं है। चिकित्साकर्मियों और स्वास्थ्य केंद्रों की समुचित व्यवस्था को प्राथमिकता ऐसा विषय है जिस पर सब सहमत हो। स्वस्थ भारत सबका सपना नहीं लक्ष्य हो इसी में देश हित है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।