बढ़ते कामकाजी हाथों का पूरा लाभ ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

यह एक अच्छी बात है कि भारत में जनसांख्यिक लाभ का 2055-56 तक सुलभ है, जो विश्व के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक है। इससे भी दिलचस्प तथ्य यह कि जनसांख्यिक मापदंडों पर उनके भिन्न व्यवहार की वजह से भारत के विभिन्न राज्यों के लिए यह मौका अलग-अलग वक्त में उपलब्ध होगा। यह सब  संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) द्वारा भारत में जनसांख्यिक लाभ पर किये गये एक अध्ययन से निकल कर सामने आया हैं।

किसी भी देश मे जनसांख्यिक लाभ की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब किसी आबादी में कामकाजी उम्र के लोगों की संख्या ऊंची होती है और उन पर बच्चों एवं वृद्धों की संख्यात्मक निर्भरता का अनुपात कम होता है। ऐसी स्थिति यह अवसर प्रदान करती है कि मानवीय क्षमताओं में बढ़ोतरी लाने की दिशा में निवेश बढ़ाकर वृद्धि तथा विकास में गति लायी जा सके। वर्तमान में समग्र देश में एक बड़ी आबादी युवा है। मगर यह स्थिति देश के सभी राज्यों में एक साथ मौजूद नहीं है, क्योंकि जनसांख्यिक मापदंडों पर अतीत में विभिन्न राज्यों का व्यवहार भिन्न-भिन्न रहा है और विशेषज्ञों ने भविष्य में भी उनमें भिन्नताएं रहने की संभावनाएं व्यक्त की हैं।

इन जनसांख्यिक मानदंडों के बदलावों एवं संयोजनों ने विभिन्न राज्यों में विभिन्न आयु तथा लैंगिक संरचनाओं को जन्म दिया है। यूएनएफपीए के अध्ययन में राज्यों के तीन वर्गों को साफ तौर पर देखा जा सकता है, जो विभिन्न कालखंड में जनसांख्यिक लाभ हासिल कर सकेंगे। पहले वर्ग के राज्य मुख्यतः देश के दक्षिणी तथा पश्चिमी हिस्सों में हैं, जिनमें केरल, तमिलनाडु, दिल्ली, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, पंजाब और पश्चिम बंगाल शामिल हैं, जिनके लिए इस लाभ की स्थिति अगले पांच वर्षों में समाप्त हो रही है। दूसरे वर्ग के राज्य वे हैं, जो यह लाभ अगले 10-15 वर्षों तक प्राप्त कर सकते हैं और इनमें कर्नाटक, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू एवं कश्मीर, असम, उत्तराखंड और हरियाणा शामिल हैं। 

राज्यों का तीसरा वर्ग उच्च प्रजनन दर का है, जो मुख्यतः भारतीय भूभाग के अंदरूनी हिस्सों में स्थित हैं, जैसे छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार. इन राज्यों के लिए जनसांख्यिक लाभ की यह स्थिति अभी शुरू भी नहीं हो सकी है और उसकी अवधि 2050 एवं 2060 के दशकों में भी आ सकती है। इस अध्ययन का मुख्य निष्कर्ष यह है कि अपने जनसांख्यिक चरित्र के बदलाव के कारण विभिन्न राज्य इस लाभ का अनुभव विभिन्न कालखंडों में करेंगे। नतीजा यह होगा कि समग्र देश के रूप में भारत इस स्थिति का फायदा एक लंबे समय तक उठाता रहेगा।

मतलब साफ़ है कि अलग-अलग वर्गों के इन राज्यों की आयु तथा लैंगिक संरचना के अनुसार  उनके लिए तदनुकूल सामाजिक-आर्थिक नीति का निर्माण किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए उन राज्यों के लिए जहां अब यह लाभ समाप्ति की कगार पर है, नीतियों एवं कार्यक्रमों के केंद्र में बढ़ती आयु तथा प्रवासी-हितैषी दृष्टि होनी चाहिए, जबकि जिन राज्यों के लिए लाभ की यह स्थिति अगले 10-15 वर्षों तक मौजूद रहेगी, मुख्य जोर बालिका-महिला सशक्तीकरण, युवाओं के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा कौशल विकास कार्यक्रमों तथा रोजगार सृजन पर होना चाहिए।

जिन राज्यों को जनसांख्यिक लाभ अभी आगे मिलने वाला है, तीन बातों पर बल देना होगा-बाल विवाह जैसी हानिकारक प्रथाओं पर अंकुश, सबके लिए गुणवत्तापूर्ण यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य तथा परिवार नियोजन सेवाएं मुहैया कराने के अलावा युवाओं को स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन एवं व्यावसायिक कौशल प्रदान करना। इस के लिए योजना निर्माण तथा कार्यक्रम क्रियान्वयन को जनसांख्यिक विशिष्टताओं के अनुरूप संयोजित  करना एक महत्वपूर्ण कार्य है जिसमे सबको लगना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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