मामा के सिर से माँ का आंचल हट गया, इसलिए इतना सबकुछ घट गया | MP NEWS

प्रवेश सिंह भदौरिया। चुनावी उत्सव समाप्त हुआ अब 11 दिसंबर का इंतजार है। वैसे माहौल देखकर लग रहा है कि इस बार जब तक आखिरी मशीन अपना परिणाम नहीं उगल देती तब तक टेलीविजन के सामने से हटना गुनाह ही होगा। कुल मिलाकर एक बात स्पष्ट है इस बार सरकार और विपक्ष दोनों का संतुलन रहेगा व दोनों ही मजबूत रहेंगे।

कांग्रेस ने इस चुनाव से नयी जीवनी प्राप्त की है। जो कांग्रेस 3-4 महिने पहले तक कहीं दिख नहीं रही थी वहीं आज उसकी लहर नजर आ रही है। इसका पूरा श्रेय प्रदेश के तीन प्रमुख दिग्गज सांसदों को जाता है। एक की ऊर्जा, दूसरे का व्यवसायिक दिमाग व तीसरे का कार्यकर्ताओं में एकजुटता बनाने के अनुभव ने ही कांग्रेस को एक मौका दिया है। अब उसे "विनिंग लाइन" दिख रही है।

2003 और 2018 में सिर्फ नाम बदला है, तरीका एक जैसा था

भाजपा के लिए ये चुनाव सत्ता सुख से ज्यादा सीखने के लिए था। इस चुनाव से स्पष्ट है कि भाजपा ने गुजरात चुनाव से कुछ भी नहीं सीखा। जनसंघ के समय से ही जिस दल की सबसे बड़ी मजबूती संगठन हुआ करती थी गुजरात व मध्यप्रदेश दोनों चुनावों में वो संगठन शक्ति नदारद दिखी। मुख्यमंत्री को इस कदर छूट दी गयी हर फैसले में कि मुझे 2003 की कांग्रेस ही याद आ गयी अर्थात कांग्रेस ने भाजपा स्टाइल में चुनाव लड़ा है व भाजपा ने कांग्रेसी तरीके से।

नारों तक ही सिमटकर रह गया YUVA MORCHA

भारतीय जनता युवा मोर्चा के जोशीले व अतिआत्मविश्वासी चुनावी नारे "अबकी बार 200 पार" का यदि आधा सफर भी भाजपा तय कर पाये तो वे अपनी जीत समझें क्योंकि युवा मोर्चा कुछ समय से सिर्फ अपने अध्यक्ष व प्रदेश के मुखिया के इर्द गिर्द ही सिमटकर रह गया है। ना तो उसने अपने दिये नारों को साकार करने में कोई रुचि दिखाई और ना ही संगठनात्मक स्तर पर मजबूती दिलाई। जो गलती पूर्व भाजपा अध्यक्ष से हुई थी वही गलती भाजयुमो अध्यक्ष से हुई है। हालांकि वो भूल गये हैं कि वो ऐसे पद पर बैठे हैं जिस पर कभी नरेंद्र सिंह तोमर जैसे कुशल "चाणक्य" बैठा करते थे।

अंत में दो प्रमुख बातें-

1.नेताओं को अपना अहं व स्वयं का कद पार्टी व संगठन से बड़ा नहीं दिखना चाहिए।
2.जीत व हार दोनों से सबक लेना चाहिए व परिणाम से पूर्व ही बड़ी सर्जरी कर देनी चाहिए।

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