रुकिए, बहुत हो गया “लोकलुभावनवाद” | EDITORIAL by Rakesh Dubey

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में से छत्तीसगढ़ के चुनाव निबट चुके हैं, मध्यप्रदेश में 28 नवम्बर को मतदाता अपने अधिकार का प्रयोग करने जा रहे हैं | इस बार चुनाव थोड़े अलग हैं। ये चुनाव सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी कांग्रेस की ताकत के परीक्षण का अवसर तो हैं ही  हैं। साथ  ये चुनाव इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इन चुनावों के नतीजे आने के कुछ महीनों के भीतर ही आम चुनाव का प्रचार अभियान भी जोर शोर से गति देंगे । तीनों राज्यों में कांग्रेस और भाजपा ने जो “घोषणायें” की हैं  और “वचन” दिए हैं, उनकी पूर्ति के लिए धन कहाँ से आएगा ? इसका रास्ता दोनों ने नहीं बताया है | सरकारें हमेशा अपना खजाना भरने के लिए जनता की जेब ही ढीली करती  रही हैं |

यदि  भाजपा इन विधानसभा चुनावों में एक बार फिर मजबूती से उभरकर आती है तो देश में एक मजबूत विपक्षी गठबंधन तैयार करने की प्रक्रिया और कठिन हो जाएगी। इसके उलट अगर इन चुनावों में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करने में कामयाब रहती है तो भाजपा को केंद्र की सत्ता से हटाने के प्रयासों में उसकी केंद्रीय भूमिका और भी मजबूत हो जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए तमाम राजनीतिक दलों द्वारा तमाम तरह के वादे किए गये और किये जा रहे हैं और मतदाताओं को लुभाया भी जा रहा है। चिंता की बात यह है कि राजकोषीय स्थिति तंग होने के बावजूद जो वादों पर वादे किए जा रहे हैं, उनके लिए धन कहाँ से आएगा ?

मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बार-बार किसानों की कर्ज माफी की बात कही है। इससे पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव और पंजाब में भी कांग्रेस ने चुनाव के पहले किसानों की कर्ज माफी का वादा किया था। इस बीच तेलंगाना में जहां भाजपा अभी सत्ता में नहीं है, वहां उसने अपने घोषणापत्र में २००,००० रुपये तक के कर्ज की माफी के के वादे के साथ अन्य लोकलुभावन घोषणाएं भी की हैं। जैसे चरवाहों को दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में इजाफा, स्कूल जाने वाले बच्चों को नि:शुल्क साइकिल, कॉलेज जाने वाले बच्चों को नि:शुल्क दोपहिया वाहन, नि:शुल्क लैपटॉप, सबको आवास और २  लाख रोजगार। मध्य प्रदेश में भाजपा ने घोषित समर्थन मूल्य से ऊपर बोनस देने का वादा किया है परंतु यह बोनस चुनाव नतीजों के सामने आने के बाद ही दिया जाएगा। तमाम राजनीतिक दल खुलकर आर्थिक लोकलुभावनवाद का प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन विपक्षी दलों में यह कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है। 

क्या यह भारतीय राजनीति के लिए कोई अच्छा संकेत  है? बिलकुल नहीं  चाहे जो भी चुनाव जीते लेकिन यह स्पष्ट है कि सरकारों  की वित्तीय स्थिति एकदम खस्ता है। यह सब ऐसे समय पर हो रहा है जबकि केंद्र सरकार बीते पांच साल से राजकोषीय घाटा कम करने के प्रयास में लगी हुई है। इस अवधि में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों का घाटा दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से ऊंचे स्तर पर रहा है। ऐसे में विभिन्न फसल बीमा योजनाओं के साथ कर्ज माफी का वृहद आर्थिक असर बहुत दिक्कत देने वाला है। फसल बीमा योजनाएं ग्रामीण क्षेत्र की दिक्कतों से निपटने के लिए कर्ज माफी की तुलना में कहीं बेहतर तरीका हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इनसे किसी तरह का नैतिक नुकसान नहीं होता है। इतना ही नहीं ऐसी योजनाएं राजकोष और करदाताओं पर भी किसी तरह का दबाव नहीं डालती हैं।

सोचिये, प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद का यह सिलसिला आम चुनाव तक जारी रहा तो क्या परिणाम आयेंगे? आम जनतापर भारी कर लगेंगे   । ऐसे वक्त में जबकि शासन पद्धति सुधार के तमाम मुद्दों को हल किया जाना बाकी हो, तब आम चुनावों में लोकलुभावनवाद को कतई बरदाश्त नहीं किया जा सकता है। हमारे पास ऐसी भारी भरकम लोकलुभावन योजनाएं चलाने के लिए धनराशि नहीं है। इतना ही नहीं ऐसी योजनाएं अक्सर सतत वृद्घि और समृद्घि के एजेंडे को भी पीछे धकेल देती हैं। पक्ष और प्रतिपक्ष जिस मतदाता से ये वादे करकर वोट मांग रहा है अंत में उस मतदाता के हाथ मायूसी ही आना है | इस लोकलुभावनवाद पर रोक लगनी चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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