देश में इतिहास रचेंगे मप्र की इन 23 सीटों के ब्राह्मण | MP ELECTION NEWS

भोपाल। मध्यप्रदेश में चुनाव के नतीजे जो भी आए परंतु एक बार की गारंटी है कि चुनाव पूर्व हुए तमाम सर्वे धरे के धरे रह जाएंगे। मीडिया एवं प्राइवेट और सरकारी ऐजेंसियां इस बार जनता के मूड का अंदाज ही नहीं लगा पा रहीं हैं। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा के टिकट लेट हो रहे हैं। 

मध्य प्रदेश का विंध्य जिसे बघेलखंड के नाम से भी जाना जाता है। यहां 30 सीटें ऐसी हैं जो सत्ता के सारे समीकरण बिगाड़ देंगी। इन सीटों पर सवर्ण जातियों के वोट सबसे ज्यादा हैं। 23 सीटें ऐसी हैं जहां जीत हार का फैसला ब्राह्मण करेंगे। अब तक ये भाजपा और कांग्रेस में बिखरे हुए थे परंतु अब सिमट रहे हैं। इस इलाके में शिवराज सिंह का भाषण का अंश 'माई का लाल' अब भी बहुत जोर से गूंज रहा है। यहां लोग अब नेता के नाम से चिढ़ जाते हैं। ​स्वभाविक है नुक्सान भाजपा को होगा, लेकिन इसका फायदा कांग्रेस को भी नहीं होगा। पूर्वानुमान है कि यदि प्रत्याशी चयन सही हुआ तो यहां सपाक्स और बसपा को फायदा हो सकता है। 

बसपा क्यों मजबूत है
चुनाव रिकॉर्ड बताते हैं कि बीते छह विधानसभा चुनावों में जिन 24 सीटों पर बसपा जीती है उनमें 10 इसी इलाके की सीटें- चित्रकूट, रैगांव, रामपुर बघेलन, सिरमौर, त्योंथर, मऊगंज, देवतालाब, मनगवां, गुढ़ थीं। यहां सवर्ण भाजपा और कांग्रेस के बीच विभाजित हैं जबकि आरक्षित जातियां बसपा के बैनर तले खुद को सुरक्षित पातीं हैं। 

फिलहाल क्या स्थिति है
विंध्य के सात जिलों में कुल 30 विधानसभा सीटें हैं जिनमें से 17 बीजेपी, 11 कांग्रेस और 2 बीएसपी के पास हैं। इस इलाके को जातियों की आबादी के नज़रिए से देखा जाए तो यहां 29% सवर्ण, 14% ओबीसी, 33% एससी/एसटी और 24% अन्य की हिस्सेदारी है। 

देश का अकेला ऐसा क्षेत्र जहां ब्राह्मण करेंगे जीत हार का फैसला

इन तीस सीटों में से 23 सीटें ऐसी हैं जहां ब्राह्मण आबादी 30% से भी ज्यादा है। ये देश का इकलौता ऐसा इलाका है जहां सवर्णों की आबादी 29% है और कुछ सीटों पर ये 45% तक भी है। विंध्य की दूसरी ख़ास बात ये है कि इलाके में एससी/एसटी की हिस्सेदारी भी 33% के आस-पास है। आजादी के बाद तक यहां ब्राह्मण वर्ग लामबंद था परंतु बाद में ब्राह्मण भाजपा और कांग्रेस के बीच बंट गया था। इसलिए ब्राह्मण यहां संख्या में ज्यादा होने के बावजूद हाशिए पर थे लेकिन अब वो एकजुट हो गए हैं। इस बार वो नया संदेश दे सकते हैं। 

अर्जुन सिंह ने तोड़ा था ब्राह्मणों का तिलस्म, दिग्विजय सिंह ने नष्ट कर डाला था

इस इलाके में ब्राह्मणों की एकता पर पहला हमला पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने किया था। अर्जुन सिंह ने ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को कम करने के लिए एक तरफ़ तो नए ब्राह्मण नेताओं को बढ़ावा दिया जिनमे श्रीनिवास तिवारी भी थे, जबकि दूसरी तरफ़ ठाकुरों और आदिवासी तथा पिछड़े वर्गों का राजनीतिक गठजोड़ बनाया। अर्जुन सिंह के इस क़दम को मुख्यमंत्री बनने के बाद दिग्विजय सिंह ने भी आगे बढ़ाया और इस तरह प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण पिछड़ते चले गए। साल 2000 में छत्तीसगढ़ के मध्यप्रदेश से अलग राज्य बन जाने के कारण मोतीलाल वोरा और शुक्ल बंधु छत्तीसगढ़ चले गए जिसके कारण यहां का ब्राह्मण पूरी तरह से बिखर गया था।

माई का लाल और 2 अक्टूबर भारत बंद ने एकजुट कर दिया

ब्राह्मणों में एकता के लिए यहां कोई विशेष अभियान नहीं चलाया गया परंतु सीएम शिवराज सिंह ने भड़काऊ बयान 'माई का लाल' का यहां सबसे गहरा असर दिखाई देता है। लोगों ने आज भी चुभन है। वो इस कदर नाराज हैं कि यदि शिवराज सिंह यहां आकर हाथ जोड़कर माफी भी मांगें तब भी शायद ब्राह्मण क्षमादान ना दे पाएं। यहां तक तो कांग्रेस को फायदा हो रहा था परंतु 2 अक्टूबर के भारत बंद ने यहां के राजनीतिक हालात ही बदल दिए। जिस तरह से यहां बंद कराया गया और कांग्रेस के नेताओं ने बंद का समर्थन किया। ब्राह्मण कांग्रेस से भी चिढ़ गए। एससी एसटी एक्ट में संशोधन के बाद हालात और ज्यादा गंभीर हो गए हैं। ब्राह्मण पूरी तरह से लामबंद है और इस बार यहां का ब्राह्मण वोटर दिखाने के मूड में है कि वोटबैंक केवल आरक्षित जातियों का ही नहीं होता। 
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