ऐसे तो कोई बच्ची नहीं बचेगी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

एक सवाल भारत में पूछना अब लाजिमी होता जा रहा है कि “अबोध बच्चियों का क्या करें ?” मंदसौर कांड और उसके बाद फांसी की सज़ा, क्या इस समाज की मानसिकता में कोई परिवर्तन कर सकेगी ? फांसी की सज़ा तो मंदसौर से लगे इंदौर जिले के एक मामले में भी हुई थी। एनसीआरबी की वार्षिक रिपोर्ट ‘भारत में अपराध 2016’ सामने है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले साल लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो एक्ट), भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 376 और इसकी अन्य संबद्ध धाराओं के तहत बलात्कार के कुल 38947 मामले दर्ज किये गए। शर्म से सिर झुक गया है। इसके बाद का आंकड़ा तो समाज के आंतरिक ताने-बाने जिसे रिश्तेदारी कहते हैं, पर भी पुनर्विचार की मांग करता है। रिपोर्ट के मुताबिक 36859 प्रकरणों में पीड़ित बच्चियों और महिलाओं ने परिचितों पर उन्हें हवस की शिकार बनाने के इल्ज़ाम लगाए है। हर घटना पर मोमबत्ती जलाने और दीया जलाने वाले एक “साम्प्रदायिक एंगल” खोज लेते हैं। यह खोज वैज्ञानिक, सामाजिक और  मनोवैग्यानिक नजरिये को बदल कर “राजनीतिक एंगल” और वोट बटोर हथकंडा बना देते हैं। यह सामाजिक पतन की पराकाष्ठा है।

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2016 में बलात्कार के कई मामलों में पीड़िताओं के साथ उनके दादा, पिता, भाई और बेटे ने कथित तौर पर दुष्कर्म किया, जबकि 1087 प्रकरणों में उनके अन्य नज़दीकी संबंधियों पर उनकी अस्मत को तार-तार करने के आरोप लगे। पिछले साल 2174 मामलों में पीड़ित बच्चियों और महिलाओं के रिश्तेदार इनसे बलात्कार के आरोप की जद में आये, जबकि 10520 प्रकरणों में पीड़िताओं के पड़ोसियों पर दुष्कृत्य की प्राथमिकी दर्ज कराई गई। यहाँ भी एक सवाल है सरकार कहाँ- कहाँ और क्या-क्या करे ?

हम सब जिसमें मैं भी शामिल हूँ अपना दायित्व समझें। एक उन्नत समाज बनाने की भावना को सामने रखकर, अपने सामाजिक दायित्व को समझने का  नहीं उसके पूरा करने का समय आ गया है। इंटरनेट और सोशल मीडिया पर अश्लील सामग्री आसानी से उपलब्ध है उसका वैधानिक और सामाजिक बहिष्कार जरूरी है। लड़कों की सोच को गंदी होने से बचाने के लिए उनके माता-पिताओं को ध्यान रखना चाहिए कि वे मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर क्या देख रहे हैं? हमारे समाज में लड़कियों पर हमेशा से तमाम पाबंदियां लगाई जाती हैं इसके विपरीत नारी स्वातन्त्र्य की  गलत दिशा में बहती हवा पर भी सामाजिक अंकुश होना चाहिए। यह सब बहुत बुरा हो गया है। अब वक़्त आ गया है कि हर घर में युवा पीढ़ी को बचपन से ही सिखाया जाए कि वे देश के सामाजिक मूल्यों के मुताबिक अपने परिवार और इससे बाहर किस तरह का बर्ताव करें। सख्त कानून आवश्यक है पर नैतिकता और संस्कार के अंकुश के साथ।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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