कर्नाटक की सत्ता में कांग्रेस की भागीदारी ? | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। कर्नाटक में भाजपा विरोधी कहे जाने राजनीतिक दल 23 मई को एकत्र हो रहे हैं। कुमारस्वामी मंत्रीमंडल की शपथ के बहाने 2019 के चुनाव में भाजपा विरोध की यह एक झांकी होगी। शपथ तो येदियुरप्पा ने भी तीसरी बार ले ली थी, लेकिन उनके शपथ समारोह से ही यह साफ़ दिखने लगा था कि इसके बाद कुछ और है और ऐसा ही दृश्य कुमारस्वामी की शपथ के बाद नजर आ सकता है, जिसकी तैयारी नेपथ्य में जारी है। याद कीजिये अब तक भाजपा जहां भी सरकार बनाती आई, शपथग्रहण समारोह धूमधाम से होता रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह समेत, कई राज्यों के मुख्यमंत्री और कद्दावर नेता खर्चीले शपथग्रहण समारोहों में शोभायमान रहे हैं, लेकिन कर्नाटक में ऐसा नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ, उसके कारण स्पष्ट थे। 

कर्नाटक में भाजपा को स्पष्ट बहुमत लाती तो येदियुरप्पा को ठाठ से मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाती। शक्ति और अहंकार का ऐसा प्रदर्शन किया जाता, कि लोग कम से कम 2019 तक उसे याद रखते। अब शपथ लेने वाली गठ्बन्धन सरकार के नामशेष राष्ट्रीय दल कांग्रेस, ने जदएस के साथ पहले गठबंधन न करने की सजा कम सीटें हासिल कर भुगत ली है। चोट करारी है, एक छोटे भागीदार के साथ काम करने का अनुभव कांग्रेस को नहीं है। भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए भले ही येदुरप्पा का सहारा लिया हो पर येदुरप्पा अब उसकी अगली योजना की प्रथम पंक्ति में नहीं है। नेपथ्य में कुमारस्वामी के मंत्री चयन से उपजे रोष और अन्य आधारों पर नये समीकरण के तहत अनंत कुमार के लिए भाजपा मार्ग तैयार कर रही है।

अब अमित शाह कह रहे हैं कि कांग्रेस-जदएस का गठबंधन अनैतिक है, लेकिन नैतिक-अनैतिक की ये बातें कम से कम उनके मुंह से अच्छी नहीं लगतीं। उन्हें शायद इससे कोई सरोकार भी नहीं है। अगर वे येदुरप्पा और उनकी पार्टी दिखावा नहीं करते तो परिणाम कुछ और होते। किसी विधायक का हृदय परिवर्तन तो रातों-रात नहीं होता, लेकिन धन बल से उसे भी संभव कर लिया जाता है, भाजपा को इस बार भी कुछ ऐसी ही गलतफहमी थी। यकीनन लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाते हुए जिस तरह पद और पैसे का लालच देकर विधायकों को खरीदा जाता है, वह शर्मनाक है। अगर भाजपा को सचमुच का राष्ट्रप्रेम होता, तो इस शर्मिंदगी को दूर करने की कोशिश होती। अगर सचमुच का फकीराना मिजाज़ होता तो जिन राज्यों में बेईमानी से सत्ता मिली उसे अस्वीकार किया जाता। संविधान के लिए सम्मान किसी में भी नहीं है, अगर होता तो उसकी परंपराओं की अवहेलना करने का साहस न तो राजभवन में होता और न राजनीतिक दलों में। भाजपा के कर्णधारों ने पिछले चार साल में ऐसा कोई उदहारण नहीं बनाया। बेईमानी के नए रिकार्ड जरूर कायम किये।

यह राहुल गांधी के लिए निर्णायक वक्त है। सत्ता में भागीदारी की हद तय करें, बाहर से समर्थन देना राजनीति की आवश्यकता है। इसे सरकार से बाहर रह कर भी किया जा सकता है, अपने नाम के पीछे लगे गाँधी को याद करें और विचार करें की क्या उनकी पार्टी के पास जनादेश की इतनी प्रबलता है कि वे या उनके लोग सत्ता सिंहासन तक पहुंच सकें।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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