
ऐसा भी नहीं है कि, इस संवर्ग ने इन विसंगतियों और पदोन्नति अवसरों की कमी की ओर शासन, प्रशासन का ध्यान आकृष्ट न कराया हो। लगभग हर स्तर पर कराया। शासनस्तर पर हाल ही में फरवरी-मार्च में अध्यक्ष, मप्र विधानसभा, मुख्यमंत्री जी, साप्रवि मंत्री को और प्रशासन स्तर पर संभाग और जिलास्तर पर संवर्ग द्वारा मांगों से संबंधित ज्ञापन सौंपे गये हैं। किन्तु शासन-प्रशासन स्तर पर इस संवर्ग की मांगों के निराकरण के संबंध में कोई प्रतिक्रिया अब तक दिखाई नहीं दी है।
प्रदेश के अधिकारी-कर्मचारी संघ, जिनमें ऐसे भी संघ हैं, जो 05-10 वर्षों पूर्व ही अस्तित्व में आये हैं, चुनावी वर्ष में अपनी मांगों, समस्याओं को लेकर शासन-प्रशासन के खिलाफ हड़ताल, नारेबाजी, धरना, प्रदर्शन, भिक्षावृत्ति, मुण्डन, भूख हड़ताल, चक्का जाम, बंद, और विरोध प्रदर्शन के सारे हथकण्डे अपना रहे हैं । और सरकार भी चुनावी वर्ष होने के इन लाखों कर्मचारियों को वोट बैंक की नजर से तौलकर हैसियत के अनुसार रेवड़ी बांटने को तत्पर दिखाई देती है । मगर दुर्भाग्य से 25 वर्षों से अधिक समय से वेतनमान और पदोन्नति अवसरों की विसंगति झेल रहे गैर-मंत्रालयीन स्टेनोग्राफर्स की मांगों और समस्याओं के निराकरण की ओर शासन पूरी तरह उदासीन है और इसके पीछे संभवतः कारण यह रहे हैं कि,
01. पूरे प्रदेश में गैर-मंत्रालयीन स्टेनोग्राफर्स की कुल संख्या लगभग 1200 ही है।
जाहिर है, वोटों की संख्या के लिहाज से राजनीतिक दलों की नजर में इनका कोई खास महत्व नहीं रहा है।
02. गैर-मंत्रालयीन स्टेनोग्राफर्स का अपना कोई स्वतंत्र, मान्यताप्राप्त संघ नहीं रहा।
इसी कारण यह संवर्ग सदैव अपनी मॉंग और समस्या लिपिकवर्गीय संघ से सम्बद्ध रहते हुए ही शासन और प्रशासन के समक्ष रखता रहा, जिसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला।
03. अत्यंत कम संख्या और संभाग तथा जिलास्तर पर पदस्थगी, कार्य प्रकृत्ति और शासन-प्रशासन के उपेक्षित रवैये से हताश यह संवर्ग एकजुट नहीं हो सका, बिखरा ही रहा।
प्रदेश में लगभग 13 लाख कर्मचारी और 20 कर्मचारी संघ हैं। अपने 14 साल पूरे करने जा रही भाजपा सरकार चुनावी वर्ष में कर्मचारियों द्वारा किये जा रहे संघर्षों को तवज्जो देकर उनकी मांगों के निराकरण के लिए तैयार दिखती है. मगर नैसर्गिक न्याय से वंचित, उपेक्षित लगभग 1200 गैर-मंत्रालयीन स्टेनोग्राफर्स की वेतनमान और पदोन्नति विसंगतियों के निराकरण पर सरकार की उदासीनता निराशाजनक है। यह सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक स्वार्थ को ही परिलक्षित करती है। सत्ता की लालसा ने प्रदेश की जनता को तो धर्म, जाति और सम्प्रदाय में बांटा ही था, प्रशासनिक तंत्र भी अब इससे अछूता नहीं रहा है। ’समान कार्य के लिए समान वेतन’ के सिद्धांत तो दरकिनार कर, सत्ता हासिल करने के स्वार्थ से लिये गये फैसले राजनीतिक दृष्टि से तो फायदेमंद हो सकते हैं, मगर इससे प्रदेश की जनता और अधिकारियों-कर्मचारियों में पैदा विद्वेष, ईर्ष्या, भेदभाव और अविश्वास के जो दुष्परिणाम होंगे, उनकी भरपाई कर पाना बेहद ही कठिन होगा और इसका ठीकरा राजनीतिक तंत्र के माथे ही फूटेगा।