
पिछले दिनों एक के बाद एक देश की कई टेलिकॉम कंपनियां बदहाल होती देखी गई हैं। अभी भारत की छठें नंबर की टेलिकॉम कंपनी एयरसेल ने खुद को दिवालिया घोषित किया। सरकार का इनके हाल पर आंखें मूंदे रहना इस सेक्टर में निराशा की भावना ला रहा है। सितंबर 2016 में रिलायंस जियो की लॉन्चिंग के बाद से उसकी बेहद सस्ती सेवाएं टेलिकॉम सेक्टर में उथल-पुथल की सबसे बड़ी वजह बन गई हैं। प्रतिद्वंद्वी कंपनियां जियो पर प्रिडेटरी प्राइसिंग (अपना माल सस्ता करके औरों को धंधे से बाहर कर देने) का आरोप लगा रही हैं, लेकिन ट्राई की दलील है कि टेलिकॉम कंपनियों की संस्था सीओएआई इस मुद्दे पर अदालत जाकर वहां मुंह की खा चुकी है।
ट्राई के एक ताज़ा आदेश में कहा गया कि प्रिडेटरी प्राइसिंग होने या न होने का मामला भविष्य में ऐवरेज वेरिएबल कॉस्ट के आधार पर तय किया जाएगा। यानी सेवाओं की कीमत लंबी अवधि के औसत के रूप में देखी जाएगी। कुल मिलाकर मामला उलझ गया है और सरकार की तटस्थता भी सवालों के दायरे में आ गई है। यह स्थिति न सिर्फ कारोबार के लिए, बल्कि दूरगामी रूप से उपभोक्ताओं के लिए भी सकारात्मक नहीं कही जा सकती।
इसके विपरीत दूरसंचार के क्षेत्र में पैदा हुई होड़ ने उपभोक्ताओं को राहत दी है। उन्हें सस्ते विकल्प उपलब्ध कराए हैं। लेकिन प्रतियोगिता का कोई मतलब तभी बनेगा, जब कई प्रतियोगी मैदान में टिके रहने का सामर्थ्य रखें। ऐसा न हो कि बाकी कंपनियां धीरे-धीरे मैदान छोड़ती जाएं और टेलिकॉम सेक्टर पर किसी एक ही कंपनी का राज चलने लगे। ऐसा हुआ तो इसकी मार उपभोक्ताओं को ही झेलनी पड़ेगी। दूरसंचार क्रांति ने भारत के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर गहरा असर डाला है। इसने बड़े पैमाने पर रोजगार दिया है और लोगों का रहन-सहन जड़ से बदल डाला है। सरकार को इसका विनियमन इस तरह करना चाहिए कि इसमें आगे बढ़ने का हौसला बचा रहे। सरकार को इस विषय पर स्थिति स्पष्ट करना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।