
वैसे भी भारतीय शेयर बाजार भावनाओं पर चलता है। सकारात्मक माहौल बनते ही उसमें उछाल आ जाता है, जबकि थोड़ी भी नकारात्मक स्थिति एकदम से सुस्ती ला देती है। बजट से पहले कारोबारी थोड़ा सतर्क हो गए थे। इसका एक कारण क्रेडिट रेटिंग एजेंसी फिच का यह बयान था कि सरकार पर कर्ज के भारी दबाव के कारण भारत की रेटिंग में सुधार रुक गया है। डॉलर के मुकाबले रुपये में आई टूटन इसकी एक और वजह थी। फिर बजट में ज्यों ही शेयरों में लंबी अवधि के निवेश से होने वाली आय पर १० प्रतिशत टैक्स लगाने का एलान किया गया, कई निवेशकों ने हाथ समेटकर निकल लेने का फैसला कर लिया। दुर्भाग्य यह कि इसी बीच बाहर भी माहौल बिगड़ गया। अमेरिकी शेयर बाजारों में पिछले ६ साल की सबसे बड़ी गिरावट देखने को मिली। इसके असर से एशियाई बाजारों में भी कमजोरी देखने को मिल रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कुछ दूरगामी कदम उठाने के मूड में दिख रहे हैं, जिसने निवेशकों को सतर्क कर दिया है। उन्हें लगता है कि ब्याज दरें ज्यादा तेजी से चढ़ीं तो कर्ज की लागत बढ़ सकती है। यह डर इतना ज्यादा है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष पद पर हुई तब्दीली ने शेयर बाजारों को झकझोर कर रख दिया। सोमवार को फेड के अध्यक्ष पद से जैनेट येलन की विदाई हुई और जेरोम पॉवेल ने उनकी जगह ली।
मौजूदा वक्त में अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर १.७ प्रतिशत है, जिसका कारण वहां हुई वेतन वृद्धि को माना जा रहा है। निजी क्षेत्र की मजदूरी और वेतन वहां २०१७ के अंतिम तीन महीनों में औसतन २.८ प्रतिशत बढ़े हैं, लेकिन विशेषज्ञ अमेरिका में मुद्रास्फीति को चिंताजनक नहीं मान रहे। उनका कहना है कि अमेरिकी इकॉनमी की बुनियाद काफी मजबूत है। यही बात भारत पर भी लागू होती है। देश की अर्थव्यवस्था २०१६-१७ की मुश्किलों से उबरकर पटरी पर लौट रही है। छोटे इन्वेस्टर्स को ऐसे में धैर्य रखना चाहिए और हालात सुधरने का इंतजार करना चाहिए। हालत सुधरेंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।