मध्यप्रदेश बिहार और हमारा प्रजातंत्र

राकेश दुबे@प्रतिदिन। वैसे तो कल मध्यप्रदेश और बिहार में घटी दोनों घटनाओं की तासीर अलग-अलग है, पर ये दोनों प्रजातंत्र के लिए ठीक नही है। मध्यप्रदेश में विधानसभा के सत्र समय से पूर्व स्थगित करने की बनती परिपाटी और बिहार में बेमेल सरकारों का बनना बिगड़ना दोनों ही गैर प्रजातांत्रिक होकर उन मतदाताओं का घोर अपमान है जो इन सदनों के लिए विधायक चुनते हैं। मतदाता की आस हमेशा सदनों और सरकार के सुचारू संचालन की होती है। जिसके लिए वह इस प्रजातान्त्रिक प्रणाली के तहत चुनाव प्रक्रिया में भाग लेता है।

पहले मध्यप्रदेश पिछले पांच वर्षों से मध्यप्रदेश विधानसभा में सदन ठीक से न चलने देना, हंगामा करना और बहुमत के जोर पर बिना चर्चा के विधेयक पास होना और अनिश्चितकाल तक सदन का स्थगित होना परिपाटी बनता जा रहा है। इस बार तो यह सत्र और अनोखा था, सरकार के संसदीय कार्य मंत्री को चुनाव आयोग ने अयोग्य साबित कर  दिया था। उनकी एवजी में सरकार ने सदन में वही सब किया जो वे करते थे, समय पूर्व सत्रावसान।

अब बिहार ! लालू के साथ काम करने के दौरान नीतीश को शुरू में ही ये समझ में आ गया था कि ये रिश्ता उतना सहज नहीं रहने जितना उनका बीजेपी के साथ था। लालू अपने बेटों और विधायकों के ज़रिए जिस तरह समानान्तर सत्ता चला रहे थे उससे बतौर मुख्यमंत्री वह लगातार खुद को ही कमज़ोर महसूस कर रहे थे।बीजेपी ने उनकी इस असहजता को समझा और पहले ही उन्हें समर्थन का भरोसा दे दिया था। जिसके बाद नीतीश को गठबंधन से खुद को अलग करने की नैतिक और जायज़ वजह चाहिए थी। ऐसी वजह जो उनकी छवि के मुताबित हो। यह वजह तेजस्वी और तेज प्रताप और पूरे लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के रूप में मिल गई।

इसमें विचार करने लायक बात यह है कि पिछली बार जब मोदी के नाम पर नीतीश ने खुद को अलग किया था तो उसके पीछे उनकी प्रधानमंत्री बनने की लालसा और अल्पसंख्यक वोट की चिंता भी थी मगर इन 3 सालों में ख़ासकर यूपी चुनावों के बाद उन्हें समझ आ गया कि मौजूदा हालात में मोदी का अगले चुनावों में हारना संभव नहीं। कोई ऐसा महागठबंधन बनता दिख नहीं रहा जो किसी तरह से भी राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को चुनौती दे पाए। तो कम से कम उस पार्टी के साथ रहो जिसके साथ वो ज़्यादा सहज हैं। वोट बैंक के लिहाज़ से भी बीजेपी विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी थी। लिहाज़ा उसके साथ अगला विधानसभा चुनाव जीतना भी कोई चुनौती भी नहीं होगा। यानि पीएम बन नहीं सकते तो कम से कम अगले कुछ सालों के लिए मुख्यमंत्री रहना तो सुनिश्चित है। 

ये दोनों दृश्य कहाँ से कहाँ तक प्रजातांत्रिक है ? क्या यह मतदाता का घोर अपमान नही है ? क्या ये सरकारें जनता के करों से निर्मित राजकोष को बर्बाद नहीं कर रही हैं ? सवाल हैं, जवाब खोजिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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