
यह सभी जानते हैं कि महिलाओं के गर्भ धारण से पहले भ्रूण के लिंग की जांच नहीं कराई जा सकती है. भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के एक विज्ञापन की एक दिलचस्प कहानी में यह बात दोहराई जा रही है कि गर्भ धारण से पूर्व लिंग की जांच कराने पर पाबंदी है. ऑल इंडिया रेडियो दूरदर्शन चैनलों पर एक महिला की आवाज में ये विज्ञापन कई दिनों से आ रहा है : एक महत्त्वपूर्ण सूचना. उच्चतम न्यायालय के हाल के निर्देशों के अनुपालन में गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व लिंग चयन विधि-जिससे भ्रूण के लड़का या लड़की होने की पहचान करने में मदद मिल सकती है-के संबंध में इंटरनेट पर ई-विज्ञापनों को विनियमित करने के उद्देश्य से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा एक नोडल एजेंसी का गठन किया गया है.
जो कोई व्यक्ति ऐसे विज्ञापन को देखता है, वह ई मेल अथवा फोन के माध्यम से नोडल एजेंसी को सूचित कर सकता है. इस विज्ञापन की कहानी की कुछ इस तरह से शुरू हुई. शिकायतें यह मिलने लगी कि इंटरनेट के सर्च इंजनों पर लिंग परीक्षण संबंधी विज्ञापन दिखाए जाते हैं और सुप्रीम कोर्ट में पीसीपीएनडीटी एक्ट (गर्भ धारण एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक-विनियमन और दुरुपयोग अधिनियम) 1994 का इंटरनेट पर विज्ञापनों के जरिये उल्लंघन की शिकायतों को लेकर भी सुनवाई चल रही है.
जाहिर है, नोडल एजेंसी के सभी अधिकारियों ने इस विज्ञापन को देखा व सुना होगा. लेकिन उन्हें इसमें कोई खटकने वाली बात नहीं लगी. भाषा के जानकार बताते हैं कि अंग्रेजी में पीसीपीएनडी एक्ट का नामकरण किया गया है. एक्ट के नामकरण पहले प्री शब्द के इस्तेमाल होने से स्क्रिप्ट तैयार करने वालों ने मसविदे में भी गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व की जांच की बात दोहरा दी है. विज्ञापन का मसविदा पहले अंग्रेजी में तैयार किया गया और बाद में उसका हिन्दी अनुवाद किया गया.
हिन्दी अनुवाद की हालात यह दिखती है कि उसे इंटरनेट के किसी टूल से अंग्रेजी से हिन्दी में किया गया इसीलिए प्री कंसेप्शन एंड प्री नैटल डॉइगनॉस्टिक टेक्निक्स यानी दो प्री शब्द के लिए दो बार पूर्व शब्द-गर्भ धारण पूर्व व प्रसव पूर्व हुआ है. यह एक्ट बने दस वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं मगर पहले इसका हिन्दी में अनुवाद गर्भाधान व प्रसव पूर्व निदान तकनीक के रूप में किया जाता रहा है.
संवाद का एक ऐसा ढांचा बन रहा है जिसमें शोर-शराबा करने वाले लोग जब अपनी किसी बात को सुनाना चाहते हैं तो शोर-शराबे का वॉल्यूम कम कर देते हैं और फिर दूसरी किसी भी तर्कशील व बुनियादी बात के शुरू होने से पहले ही शोर-शराबे की नाली खोल देते हैं. इसीलिए आमतौर पर ये अनुभव किया जाता है कि जिस तरह पहले लेकर चीजों के दाम व किराया बढ़ने पर तुरंत लोग सड़कों पर उतर आते थे अब बुनियादी अधिकारों पर हमले के हालात पर भी प्रतिक्रिया जाहिर करने से चूक जाते हैं.
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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