अंतर्राष्ट्रीय मानक और भारत

राकेश दुबे@प्रतिदिन। संयुक्त राष्ट्र विकास की मानव विकास रिपोर्ट (एचडीआर) में भारत के लिए अच्छी-बुरी दोनों तरह की बातें शामिल हैं। अच्छी खबर यह है कि मानव विकास सूचकांक में सुधार के मामले में हमारा प्रदर्शन काफी सुधरा है। इस सूचकांक में जीवन संभाव्यता, स्कूली शिक्षा के वर्ष और प्रति व्यक्ति आय शामिल होते हैं। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में केवल चीन का प्रदर्शन हमसे बेहतर है। इस सूचकांक में हमारी स्थिति में सन 1990 के दशक से अब तक 46 फीसदी का सुधार हुआ है। यानी वार्षिक 1.52 फीसदी की दर। चीन में इस अवधि में सुधार की दर 1.57 फीसदी रही।

लेकिन चीन के साथ तुलना गलत है क्योंकि जैसे-जैसे इस माप पर हम ऊपर की ओर बढ़ते हैं सुधार का प्रतिशत मुश्किल होता जाता है। सन 1990 से 2015 के दौरान भारत ऐसे नौ देशों से आगे निकल गया जो सन 1990 में उससे बेहतर स्थिति में थे। जबकि सन 1990 में भारत से खराब स्थिति में रहा कोई भी देश उसे पीछे नहीं छोड़ पाया है। इतना ही नहीं भारत एक दशक पहले की कमतर मानव विकास की श्रेणी से मध्यम मानव विकास की श्रेणी में आ गया है। अगर कोई चकित करने वाली बात नहीं हुई तो एक और दशक में हम उच्च मानव विकास वाली श्रेणी में आ जाएंगे। 

देश का आंकड़ा बेहतर करने का सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में हम अपना रिकॉर्ड बेहतर करें। देश में लड़कियां औसतन 4.8 वर्ष तक स्कूली शिक्षा ग्रहण करती हैं जबकि लड़के 8.2 वर्ष तक। सभी बच्चों का औसत 6.6 वर्ष का है। अगर इस स्तर को सुधार कर 12 वर्ष किया जा सके तो हम उच्च मानव विकास की श्रेणी में आ जाएंगे। उजबेकिस्तान हमारे जैसी ही आय के साथ उस स्तर को हासिल कर चुका है। एक अन्य कारक जिस पर ध्यान देना चाहिए, वह है स्त्री-पुरुष असमानता का निराश करने वाला स्तर। शिक्षा के स्तर में यह मुखर होकर सामने आता है। उसके बाद आय में इसे महसूस किया जा सकता है। देश में आय का पुरुष-स्त्री अनुपात क्रमश: 4:1 है। जबकि अन्य मध्यम विकास वाले देशों में यह 3:1 है। इस समस्या के मूल में है श्रमशक्ति में महिलाओं की सीमित भूमिका। पाकिस्तान समेत पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों का रिकॉर्ड ही इस मामले में हमसे खराब है। 

समग्र मानव विकास सूचकांक में सुधार के मामले में भारत का प्रदर्शन जहां उल्लेखनीय है, वहीं इस उपलब्धि का स्तर कतई संतोषजनक नहीं माना जा सकता है। बल्कि वह यह दिखाता है कि अभी कितना कुछ किया जाना बाकी है। उदाहरण के लिए देश की 55 फीसदी आबादी यूएनडीपी के शब्दों में बहुआयामी गरीबी के दौर से गुजर रही है (इसमें अल्पपोषण, उम्र से कम औसत वजन आदि जैसे सूचकांक शामिल हैं।)। 18 फीसदी अन्य लोगों पर ऐसी ही गरीबी के भंवर में फंसने का जोखिम है। यानी उपरोक्त दो श्रेणियों में कुल 73 फीसदी लोग। यह हमारे लिए चेतावनी सरीखा है क्योंकि अंतरराष्टï्रीय मानकों के मुताबिक प्रति दिन 1.90 डॉलर से कम आय वाले लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और देश में ऐसे लोगों की तादाद 21.2 फीसदी है। इस आंकड़े की मदद से कोई चाहे तो अपना मन बहला सकता है कि हम अत्यधिक गरीबी के चक्र से बाहर आ रहे हैं। आत्मावलोकन की एक और वजह इस तथ्य से जुड़ी है कि हमारे लगभग सभी दक्षिण एशियाई पड़ोसी हमसे बेहतर स्थिति में हैं। चाहे पाकिस्तान हो या बांग्लादेश या फिर नेपाल। सभी की प्रति व्यक्ति आय हमसे कम है लेकिन गरीबी का आंकड़ा हमसे बेहतर है। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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