तो कैसे टूटेगा राजनीति और धनपशुओं का गठजोड़ ?

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही तमाम अटकलों पर विराम लगाते हुए कह दिया कि संवेदनशील सहारा डायरी केस में एसआईटी जांच नहीं कराने का फैसला दिया है, पर इससे जन मानस के मन में व्याप्त धनबल की राजनीति और उससे संसाधनो का दुरूपयोग जैसे सवाल का कोई समाधान नहीं निकला है। कोर्ट के मुताबिक इस मामले में डायरी नोटिंग्स को सबूत की तरह नहीं लिया जा सकता। गौरतलब है कि इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (बतौर मुख्यमंत्री, गुजरात) समेत कई दलों से जुड़े मौजूदा और पूर्व मुख्यमंत्रियों पर बड़े कॉरपोरेट घरानों से पैसे लेने का आरोप है।  सवाल वहीं का वहीँ खड़ा है, की राजनीति में इस प्रकार की दुरूह संधियाँ होती थी होती है और होती रहेंगी। इसका इलाज किसीके पास नहीं है और हर सरकार किसी न किसी उस धनपशु के हितों का संरक्षण करेगी जिससे उसने चुनाव के पूर्व धन लिया है।

इस फैसले के बाद राजनीतिक हलकों में अब यह बात कहीं ज्यादा भरोसे के साथ बोली जाने लगी है कि अगर ऐसे किसी भी कागज या डायरी के आधार पर जांच होने लगे तो फिर सिस्टम का चलना ही मुश्किल हो जाएगा। ध्यान देने की बात है कि यह मामला किसी सामान्य कागज या डायरी से जुड़ा नहीं था। यह डायरी सरकारी एजेंसियों की जांच-पड़ताल के क्रम में छापेमारी के दौरान जब्त की गई थी। इससे उस धारणा को मजबूती मिल रही थी, जो लंबे समय से इस देश के जन मानस में बैठी हुई है कि बड़े औद्योगिक घराने राजनीतिक दलों और सरकार से जुड़े ताकतवर लोगों को आर्थिक फायदा पहुंचाकर उनका इस्तेमाल अपने हित साधने में करते हैं।

ऐसी स्थिति में अगर कोई दस्तावेज ऐसी कंपनियों और संबंधित मुख्यमंत्रियों के बीच अवैध गठजोड़ की तरफ इशारा करता है, और सुप्रीम कोर्ट उसे अदालत में रखे जाने लायक ही नहीं मानता, तो फिर यह सवाल ज्यों का त्यों रह जाता है कि इस गठजोड़ की छानबीन आखिर कैसे की जाए? क्या लोगों के मन में उठते संदेहों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए, या फिर कोई तरीका अपनाकर दूध का दूध, पानी का पानी होने का इंतजार किया जाए? मान लीजिए, इस मामले की प्राथमिक जांच भी करनी है, तो फिर वह कौन सी जांच-एजेंसी है, जो इस मामले में निशाने पर आ रहे ताकतवर लोगों के खिलाफ जांच को किसी भरोसेमंद अंजाम तक पहुंचा सकती है? शायद कोई नहीं। 

ऐसी उलझनों से निपटने के लिए ही कुछ साल पहले संसद में लोकपाल बिल लाया गया था और उसे पास भी किया गया था। लेकिन मौजूदा सरकार अपना आधा कार्यकाल बिता लेने के बाद भी कोई लोकपाल नहीं नियुक्त कर पाई है। क्या इसके पीछे मंशा सत्तारूढ़ लोगों को हमेशा संदेह से ऊपर बनाए रखने की है? अगर हां, तो यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए, उतना अच्छा रहेगा। सरकार को स्वत: लोकपाल जैसी संस्था का गठन कर ऐसे सभी मामलो की जाँच कराना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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