
तब स्कूलों से छात्रों को जोड़े रखने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने आठवीं तक किसी को फेल न करने का नियम बनाया था। इसका मकसद बच्चों के दिलोदिमाग से परीक्षा का भूत काफूर करना था। परीक्षा के बजाय सतत मूल्यांकन प्रक्रिया को उस समय अपनाया गया था।
इसमें यह बात शामिल थी कि बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए परीक्षा के अलावा अन्य उपाय भी श्रेयस्कर हो सकते हैं। सो बच्चे पढ़ाई तो खुले मन से तो करें ही, खेल-कूद और शिक्षणोत्तर गतिविधियों में भी समय दें। मगर अफसोस कि फेल न करने की नीति के अच्छे नतीजे नहीं मिले। छात्र बेफ्रिक हो गए, पढ़ाई से लापरवाह हो गए। समान प्रतिक्रिया ज्यादातर शिक्षकों में भी देखने को मिली। जब फेल नहीं होना है तो काहे की पढ़ाई! इसका नतीजा यह हुआ कि बीच में ही पठन-पाठन को तिलांजलि देने का एक सिलसिला सा बन गया, ऐेसे में उस योजना में फेरबदल की जरूरत चौतरफा महसूस की जाने लगी और मैराथन बैठक के बाद मोदी सरकार के विधि मंत्रालय ने पहले से चली आ रही नीति को घटाने की मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बात मान ली. यह ठीक भी है।
इसलिए कि पांचवीं तक पढ़ाई उस कदर कठिन नहीं होती। जिससे कि आगे छात्रों को संभलने का मौका मिल सकता है, फिर अगर सरकार को 2018 से 10वीं में बोर्ड परीक्षा अनिवार्य करनी है तो फेल होने की कक्षा आठवीं के बजाय पांचवीं करना लाजिमी ही है। हालांकि यह बात होती रहेगी कि प्रतिभा-मूल्यांकन का आधार परीक्षा हो या कुछ और। जब तक परीक्षा से इतर मानदंड नहीं अपनाए जाते, परीक्षा को अपनाना ही होगा। इससे बच्चों में एक जिम्मेदारी आएगी, जो उनके परिणामों के साथ देश की उन्नत मेधा में भी झलकेगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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