जब संगीत सम्राट तानसेन ने तोड़ी मुगल परंपरा…

मुगल बादशाह अकबर अक्सर अपने नवरत्नों के घर जाया करते थे। बादशाह के स्वागत के लिये नवरत्नों द्वारा घरों को खूब सजाया जाता था। मगर बादशाह अकबर जब तानसेन के घर भेंट करने पहुँचे, तो तानसेन ने इस परंपरा को नहीं निभाया। उन्होंने बादशाह के लिये कोई विशेष इंतजाम न किए और न ही अपने घर को सम्राट के सम्मान में सजाया। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत का जादू ही था कि बादशाह नाराज होने के बजाय तानसेन के गायन से मंत्र-मुग्ध हो गए।

सुर सम्राट तानसेन ने राग मुल्तानी धनाश्री चौताला में दो-एक पद सुनाकर अकबर को मंत्र-मुग्ध कर दिया। इनमें से एक पद की कुछ पंक्तियाँ ये हैं.....
ए आयौ, आयौ मेरे गृह छत्रपति अकबर, मन भायौ करम जगायौ ।
तानसेन कहें यह सुनो छत्रपति अकबर, जीवन जनम सफल कर पायौ ।

मुगलिया शान-ओ-शौकत का वर्णन तत्कालीन ग्रंथों में मिलता है। जब मुगल बादशाह अपने किसी सिपहसालार के घर जाते थे, तब मखमल एवं मुगलिया शानो-शौकत के जरबफ्तकमखाब के पायदान बिछाए जाते थे। डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी किताब में लिखा है कि जब सम्राट की सवारी आती थी तो सोने-चाँदी के फूलों की वर्षा और मोतियों से न्यौछावर की जाती थी। इस मुगलिया शान को भारतीय शास्त्रीय संगीत ने झुकने को मजबूर कर दिया।

जब जोगी बन गए मुगल बादशाह......

मुगल सम्राट अकबर का संगीत प्रेम जग जाहिर था। उनके दरबार की संगीत मण्डली में एक से एक नायाब हीरे थे। सुर सम्राट तानसेन भी मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में शुमार थे। तानसेन की समधुर गायकी में डूबे सम्राट अकबर के जेहन में यह बात अक्सर उठा करती थी कि जब तानसेन की गायकी में इतनी मिठास है तो उनके गुरू का कंठ संगीत कैसा होगा।

बादशाह अकबर तमाम कोशिशों के बावजूद तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास को अपने समक्ष गायन के लिये राजी नहीं कर पाए। स्वामी हरिदास के कंठ संगीत सुनने की जिज्ञासा सम्राट अकबर को वृंदावन की कुंज गलियों में खींच लाई। किंवदंती है कि अकबर स्वयं तानसेन के साथ जोगी का भेष बनाकर वृंदावन गए थे।

कहा जाता है कि वहाँ पर तानसेन ने स्वामी हरिदास के समक्ष जान-बूझकर अशुद्ध रूप में गायन किया। तानसेन द्वारा किए गए विकृत गान को सुनकर स्वामी जी अपने को रोक नहीं पाए और इस राग को शुद्ध करते हुए उन्होंने शुद्ध भारतीय संगीत में अपनी तान छेड़कर बादशाह अकबर को अभीभूत कर दिया। इस प्रकार स्वामी हरिदास का शास्त्रीय गायन सुनने की सम्राट अकबर की तमन्ना पूरी हो सकी।

सम्राट अकबर और स्वामी हरिदास की भेंट संबंधी यह किंवदंती अन्य किंवदंतियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक है। इसका उल्लेख सम्वत् 1800 में विद्वान राजा नागरीदास कृत “पद प्रसंग माला” और हरिदासी संप्रदाय के ग्रंथों में मिलता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अकबरी दरबार के अलावा संगीत का दूसरा बड़ा केन्द्र बृज था। बृज क्षेत्र के गोकुल गोवर्धन और वृंदावन में उस समय भक्तिमार्गीय संगीतसाधकों और भक्त गायकों का अच्छा जमावड़ा था। डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी के अनुसार स्वामी हरिदास और गोविन्द स्वामी जैसे संगीताचार्य तथा सूरदास, कुंभनदास और परमानंद जैसे सिद्ध गायक बृज क्षेत्र के ही थे। तानसेन ने भी स्वामी हरिदास और गोविन्द स्वामी जैसे महान संगीताचार्यों से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी।

मालूम हो कि ग्वालियर से संगीत का ककहरा सीखने के बाद तानसेन ने वृंदावन में संगीत की उच्च शिक्षा ली। इसके पश्चात शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खाँ और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचंद्र के दरबार के मुख्य गायक बने। यहाँ से सम्राट अकबर ने उन्हें आगरा बुलाकर अपने नवरत्नों में शामिल कर लिया।

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