
इस दो दिवसीय कार्यक्रम में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने जो बातें मोटे तौर पर कही, उनसे ऐसा लगता नहीं कि पार्टी के पास देश के इस सबसे बड़े और महत्त्वपूर्ण सूबे के लिए कोई विशेष कार्ययोजना या रणनीति है| प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बैठक के दोनों दिन सिर्फ और सिर्फ विकास का मंत्रोच्चार किया, तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और कलराज मिश्र, मेनका गांधी, किरण रिजूजू आदि नेताओं ने कैराना के बहाने हिंदुत्व का तराना जोर-शोर से गुनगुनाया| इससे संकेत यही मिला कि पार्टी यहां उसी रणनीति के तहत चुनाव मैदान में उतरेगी, जिसके सहारे उसने 2014 के लोक सभा चुनाव में विस्मयकारी और ऐतिहासिक कामयाबी हासिल की थी| उस चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी हर जगह विकास की बात कर रहे थे, तो अमित शाह और दूसरे नेता मुजफ्फरनगर दंगे के बहाने हिंदुत्व के मुद्दे को हवा देकर जोर-शोर से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे थे|
दरअसल, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद भाजपा के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती है|पहली चुनौती बिहार के चुनाव थे, जिसमें भाजपा और उसके सहयोगी दलों को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी| उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए ऐसा सूबा है, जहां पिछले लोक सभा चुनाव को छोड़ दिया जाए, तो पार्टी डेढ़ दशक से भी अधिक वक्त से तीसरे नंबर पर रहते हुए अपनी खोई हुई ताकत फिर से हासिल करने के छटपटा रही है| हालांकि पार्टी इस बार उत्तर प्रदेश को बिहार की तुलना में ज्यादा आसान मैदान मान रही है| इसकी बड़ी वजह यह है कि यहां बिहार की तरह विपक्ष एकजुट नहीं है और हो भी नहीं सकता|पार्टी को शायद यह भी अंदाजा है कि उसका पारंपरिक मतदाता उसका साथ नहीं छोड़ेगा और उसे किसी भी हालत में न मिलने वाले मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा| शायद इसी भरोसे की वजह से अभी तक केंद्र सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश के लिए किसी बड़ी परियोजना का ऐलान नहीं किया गया है| भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन हिंदुत्व की खेती के लिए पर्याप्त उर्वर है और उस पर थोड़ी-सी मेहनत से ही वोटों की फसल लहलहा सकती है, ठीक असम की तरह| अभी से आत्म मुग्धता की यह स्थिति ठीक नही है |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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