राकेश दुबे@प्रतिदिन। संविधान में अनुच्छेद 341 के अंतर्गत इन्हें अनुसूचित जाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। संविधान की पड़ताल करें तो पता चलता है कि इसमें असमानता को दरकिनार कर मानवता और समानता का मापदंड निहित किया गया है। भारतीय समाज में वाल्मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है, और इन्हें मानव मल की सफाई हेतु जाना जाता रहा है। आज भी इस काम से इन्हें पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है। हालांकि घर-घर शौचालय बनाने वाली सरकारी योजना इनको इस काज से मुक्त करने का रास्ता बनाती दिख रही है।
इतिहास पर दृष्टि डालें तो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में दलितों की पहुंच और नेतृत्व बेमिसाल रहा है। भारत में दलित आंदोलन की शुरुआत ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में हुई जो जाति के माली थे, जिन्हें उच्च जाति के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे, जिन्होंने तथाकथित नीची जाति के लोगों की हमेशा पैरवी की। इनके द्वारा उठाया गया दलित शिक्षा का कदम उस जमाने का बड़ा नेक काज था। दरअसल, समाज में भेद का खेल निरंतर प्रवाहशील रहा है। स्वतंत्रता के बाद इस शुभ इच्छा के साथ संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता का अंत किया गया था कि इससे सामाजिक समरसता और समानता का भाव विकसित होगा पर 65 वर्ष के बाद भी इस मामले में पूरा संतोष तो नहीं दिखता।
सुनपेड़ की घटना पर राहुल गांधी का अंदाज उत्तेजना से भरा था। जाहिर है ऐसा करना गलत भी नहीं था, पर वह भूल गए कि उनके दस साल के कार्यकाल में भी दलित उत्पीड़न की घटनाएं कम नहीं थीं. यूपीए-1 के समय वर्ष 2004 में देशभर में घटित दलित अत्याचारों की संख्या 27 हजार थी, जो 2008 में 34 हजार तक पहुंच गई. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 में यूपीए-2 की समाप्ति होते-होते दलित उत्पीड़न के कुल मामले 47 हजार को पार कर चुके थे। तस्वीर बताती है कि उत्पीड़न को लेकर कठोर कदम पहले भी नहीं उठाए गए हैं।
देखा जाए तो देश में कानून तो हैं, पर खामी क्रियान्वयन में है। ध्यान रहे कि सामाजिक वर्गीकरण का दौर कुछ भी रहा हो पर वर्तमान दौर सामाजिक समानता का है। यदि इससे परे रहने की कोशिश की जाएगी तो पहले देश ही नुकसान में जाएगा और फिर तो मानव सभ्यता टिकेगी ही नहीं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com