सूचना का अधिकार अधिकार अधिनियम 2005 के 3650 दिन

अजय दुबे। ग्रामसभा, विधानसभा और लोकसभा में सरकार से प्रश्न पूछकर देश के विकास को सुनिश्चित करने के लिए बैठे जनप्रतिनिधियों को भेजने वाली जनता को प्रश्न करने के मौलिक अधिकार को कानूनी रूप 12 अक्टूबर 2005 को मिला। इस अधिकार को सूचना का अधिकार अधिनियम का नाम दिया और भारतीय संसद ने मतदाताओं से अपेक्षा करी कि वो भ्रष्टाचार का अंत करने के लिए इसकी मदद से आगे आयें। इस अधिनियम का प्रस्ताव सरकारी कार्यालयों और सरकारी राशि या अप्रत्यक्ष सहायता से चलने वाले गैर सरकारी संगठनों में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करता है । आज जब इस कानून ने 10 वर्ष पूर्ण कर लिए तब ये चिंतन करना जरूरी है कि इस अधिनियम ने जनता की सुशासन की उम्मीदों को कितना पूरा किया। 

मोदी सरकार ने जरूर इस वर्ष भारत के मुख्य सूचना आयुक्त के लम्बे समय से रिक्त पद पर योग्य और अनुभवी शख्स विजय शर्मा को स्थान दिया। केन्द्रीय सूचना आयोग ने मुख्यालय दिल्ली में क्रांति भवन में रखकर कुछ निर्णयों से पिछले 10 वर्षो से पूरे देश में सूचना क्रांति लायी है । अमर शहीद सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु से सम्बंधित रिकाॅर्ड के प्रगटन का विवाद हो या क्रिकेट की दुनिया में विश्व की सबसे धनी संस्था बीसीसीआई में सूचना का अधिकार लागू करने पर बहस हो देश के मीडिया ने खबरों में जबरदस्त स्थान दिया। जजों और अधिकारियों की संपत्ति के सार्वजनिक करने का मामला हो या राजनैतिक दलों में इस कानून के जरिये पारदर्शिता लाने का निर्णय हो आम नागरिक के लोकतंत्र में विश्वास को मजबूत करते हैं म.प्र. में भी बहुचर्चित व्यापम घोटाले और एमपीपीएससी घोटाले की कई परतें इस अधिकार ने खोली है। 

पूर्व में दागियों और राजनैतिक आकाओं की शह पर एम.पी. पीएससी के अध्यक्ष और सदस्य बनने वालों की पोल भी इस अधिकार ने बखूबी खोली जिसको देखते हुए मप्र हाईकोर्ट ने हमारी याचिका पर मप्र सरकार को आदेश दिया कि   म.प्र. लोकसेवा आयोग अध्यक्षों और सदस्यों की नियुक्ति में स्वच्छता और पारदर्शिता अपनायी जाये। इस अधिकार को लेकिन सरकारों ने यथोचित सम्मान नहीं दिया जिसका उदाहरण है कि इस कानून को मजबूत करने के लिए बड़े पदों पर बैठने वालों हुक्मरानों ने कभी भी सार्वजनिक स्तर पर 2 शब्द नहीं बोले। 

म.प्र. सरकार, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सूचना आयोग में योग्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति पर कभी भी सरकार ने गंभीरता दिखाई । सरकार के इशारे पर चलने वाले सूचना आयोग के लोगों के बंगलों, शाही यात्रा सुविधाओं और अन्य मांगों के पूरा होने पर फैसलों का रूख जनविरोधी होता है । अधिकतर आयोगों में रोस्टर प्रणाली नहीं है। 

ऐसे कई मामलों में मध्य प्रदेश के सामान्य प्रशासन विभाग का जिक्र करना जरूरी है क्योंकि ये विभाग हाईकोर्ट के आदेश और म.प्र. के मुख्य सूचना आयुक्त के आदेश के बावजूद दतिया के 2006 के सिंध नदी के हादसे जाँच आयोग रिपोर्ट और महत्वपूर्ण दस्तावेज आज तक नहीं मिले। इस विभाग की लोक सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी ने तो आवेदनों और अपीलों को 2 वर्षो के बाद निराकरण करने का देश में रिकाॅर्ड कायम किया है जबकि अधिनियम के अनुसार इनका निराकरण 30 दिवस में होना चाहिए। अधिनियम की आत्मा धारा 4 जिसके तहत जानकारियों का स्वतः प्रगटन होना चाहिए लेकिन कण मात्र भी इसका पालन नहीं हुआ। भारत सरकार कहती है कि वेबसाइट पर मंत्रियों और अधिकारियों के देशी और विदेशी यात्रा के उद्देश्य, उपलब्धि और खर्चे सार्वजनिक होने चाहिए तथा सूचना का अधिकार के आवेदन आॅनलाईन स्वीकारने की व्यवस्था होनी चाहिए पर ऐसा नहीं हो रहा। किसी भी राज्य में अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के तबादले के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बने तबादले बोर्ड की बैठकों के कार्यवाही विवरण सार्वजनिक नहीं हो रहे जो कुशासन को बढ़ावा देते हैं। 

दरअसल विभाग में इस कानून के क्रियान्वयन के लिए समीक्षा करने की कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके कारण बड़ी संख्या में अधिकारी और कर्मचारी लापरवाह हो गए नतीजतन आवेदन ठुकराये जा रहे हैं और जनता की अपीलों और शिकायतों का पहाड़ सूचना आयोग में खड़ा हो गया है । प्रशिक्षण का भी अभाव है । हमारे द्वारा कई बार अनुरोध करने के बावजूद स्कूलों के पाठ्यक्रम में सूचना का अधिकार को सम्मिलित नहीं किया जा  रहा । आज के समय में सूचना का अधिकार की हालत देखने पर लगता है कि अब लोकहित की भी दो परिभाषायें हैं । कोई जनहित का नाम लेकर गोपनीयता तोड़ता है तो कोई लोकहित के लिए गोपनीयता बढ़ाता है । सत्य में जनहित है या जनहानि है ये अक्सर समर्थ तय करता है असमर्थ का प्रिय सत्य बहुथा गोपनीय रह जाता है।

वर्तमान में सूचना से आशंकित शासकों को इतिहास पर नजर डालना चाहिए जहाँ गवर्नर जनरल रहे राजगोपालचारी का पारदर्शिता के प्रति समर्पित शानदार व्यक्तित्व दिखता है । उनका नियम था keep my table clean of papers, keep my corridor clean of visitors.

अजय दुबे
संयोजक
सूचना का अधिकार आन्दोलन

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