कृषि का समाजशास्त्र और भारत

राकेश दुबे@प्रतिदिन। क्या है कृषि का समाजशास्त्र? यह कि भूमि, जो जीवन का एक मूलभूत संसाधन है आज भी, उस पर मूलत: सवर्णों और सामाजिक ढांचे में तेजी से आगे बढ़ती कुछ पिछड़ी जातियों का कब्जा है। जिन राज्यों में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन सही दिशा में हुआ, उनको छोड़ अधिकतर राज्यों में जमीन के बड़े हिस्से पर मुट्ठी भर किसानों का कब्जा है और उनके नीचे हैं बेहद विपन्न या छोटे रकबे वाले किसान और फिर विशाल भूमिहीन मजूरों की फौज। विनोबा का भूदान हो या भूमिहीनों को जमीन का पट्टा देने का सरकारी प्रयास, अब तक विफल ही रहा है।

हाल में जो आंकड़े आए हैं उनमें इस बात का खुलासा भी हुआ है। तीस फीसद ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। कभी जोर-शोर से यह नारा लगाया जाता था कि ‘जो जमीन को जोते बोए, वह जमीन का मालिक होए।’ लेकिन यह नारा कभी जमीन पर उतर नहीं पाया। यह भी हकीकत है कि आदिवासियों को छोड़ छोटी जोत के मालिक अधिकतर किसान कब के खेती छोड़ दिहाड़ी मजदूर बन चुके। क्योंकि खेती करना उनके बस का नहीं। उससे उनका पेट ही नहीं भरता। इसके अलावा वह अब महंगी भी हो चुकी है। खेती तो अब वैसे ही किसान करते हैं जिनके पास जमीन का अपेक्षाकृत बड़ा रकबा है और जो मजूर रखने और बीज, खाद, पानी, डीजल, बिजली आदि के खर्च उठा सकें।

इसी सामाजिक-आर्थिक ढांचे में अवतरित होता है यह दर्शन कि कृषि तो अलाभकारी है और उसे लाभकारी बनाने के लिए उसका व्यवसायीकरण जरूरी है। और यह होगा कैसे? जमीन की क्षमता का अधिकतम दोहन कर। परंपरागत बीजों की जगह बहुदेशीय कंपनियों द्वारा आयातित बीज और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से। कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से। यह एक वास्तविकता है कि नए किस्म के बीजों और रासायनिक खादों, खासकर यूरिया के प्रयोग से उपज बढ़ी। लेकिन खेती बेहद महंगी हो गई।

देश के बड़े भू-भाग में धान की खेती होती है। अपने देश में धान के बीजों के विविध प्रकार थे। किसान फसल का एक हिस्सा बीहन के लिए बचा कर रखता था। लेकिन बाजार में उपलब्ध बीजों का प्रचलन होते ही पुराने बीजों का प्रचलन खत्म हो गया। घरेलू बीज और बाजार के बीज की कीमत में अंतर क्या है? बिहार और झारखंड में धान नौ रुपए किलो बिकता है, जबकि बाजार का बीहन 270-280 रुपए किलो। देशी बीज गोबर की खाद और अपेक्षाकृत कम पानी में भी फसल देते हैं, जबकि बाजार के बीजों के लिए रासायनिक खाद, भरपूर पानी और कीटनाशक जरूरी।

परिणाम यह हुआ कि उपज तो बढ़ी, लेकिन बाजार पर निर्भरता भी। हुआ यह भी कि नगदी फसलों का प्रचलन बढ़ा। दलहन की खेती कम होने लगी। बहुत सारी ऐसी फसलें जो प्रतिकूल मौसम में भी पैदा हो जाती हैं और चावल, गेहूं जैसे अनाजों का विकल्प बनती हैं, उनका उत्पादन बेहद कम हो गया। गन्ना, कपास जैसी नगदी फसलों की खेती की तरफ किसानों का झुकाव हुआ। इसका परिणाम क्या हुआ उसे कपास के मामले में हम देख सकते हैं, जिसे उपजाने वाले किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्याएं कीं।
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