राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत के स्वर्णिम इतिहास से, भारत का वर्तमान मेल नहीं खा रहा है और यदि इसी चाल से चलते रहे तो भविष्य निश्चित ही गंभीर प्रश्नचिन्हों से घिरा होगा | अब तक आज़ाद भारत की जितनी भी सरकारें आई सबने शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग किये आयोग बनाये | संसद में रिपोर्ट पेश कर अपनी पीठ ठोंकी |
संसद के बाहर हम कहाँ है ? विश्व के परिदृश्य में कहीं नहीं | तक्षशिला और नालंदा जैसा कोई विश्वविद्यालय भारत के पास नहीं है | ह्वेनसांग और फाहियान जैसे छात्र कभी आते होंगे, यह भी किवदन्ती में शामिल हो जायेगा |
विश्व के उत्कर्ष विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय पहले 200 की सूची में नहीं है और तो और यदि पिछले वर्ष से तुलना करें तो हमारे शिक्षा संस्थान अपने पूर्व स्थान भी कायम नहीं रख सकें हैं | हमारी सरकार ने इसे बाज़ार बना दिया है और विदेशी विश्वविद्यालयों को यहाँ आने की अनुमति दे दी है | अपने स्तर को सुधारने में उसकी कोई रूचि नहीं है | कहने को संसद के पक्ष-प्रतिपक्ष में मूर्धन्य शिक्षा शास्त्री शोभा बढ़ाते हैं पर नक्कारखाने में कभी तूती तो बजाते |
देश जो शिक्षा संसथान पिछले वर्ष 200 से 300 के बीच थे और नीचे आ गये हैं जैसे आई आई टी दिल्ली 212वे स्थान से 222वे स्थान पर, आई आई टी मुंबई 227 से 233वे स्थान पर,आई आई टी कानपुर 278 से 295 स्थान पर, आई आई टी मद्रास 312 से 313 और आई आई टी खड़गपुर 349 से 346 वे स्थान पर फिसल गई है | संसद, विधानसभा से ताल्लुक रखने वालों के निजी विश्वविद्यालयों की बाद जरुर देश में आ गई है | अपने को शिक्षाशास्त्री कहने वालों नींद से जागो नहीं तो आने वाली पीढ़ी तुम्हें माफ़ नहीं करेगी |
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं।
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