भोपाल। उपदेश अवस्थी/जावेद खान। उधर ग्वालियर में भाजपा ने अगले पांच साल के सपने बुने तो इधर कांग्रेस ने इस बार भाजपा को उखाड़े फैंकने का निर्णय कर लिया। निश्चित रूप से कांग्रेस की एकजुटता मध्यप्रदेश में शिवराज के लिए घातक होगी। मध्यप्रदेश भाजपा से इतर शिवराज सिंह की अपनी भाजपा तैयार हो गई है और इस नाराजगी का खामियाजा भी मिलगा ही। इन सबके अलावा मध्यप्रदेश की 39 सीटें ऐसी हैं जिन्हें संविदा शिक्षक एवं अध्यापकों के परिवार सीधे प्रभावित करते हैं और शिवराज का रूख यहां भी निर्णायक भूमिका में रहेगा।
मध्यप्रदेश में 10 सालों से भाजपा की सरकार की राह इस बार कांटो भरी नजर आ रही है। एक तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की स्वयं की 5000 से अधिक घोषणाओं के अधुरा रहने से वे खुद भी आहत है वही दूसरी प्रदेश भर से कर्मचारियों को संतुष्ट न कर पाने की स्थिती में भाजपा सरकार के सारे भ्रम बिखरते जा रहे है।
इस बात को नकारा नही जा सकता कि लाख हिदायतों के बावजूद भाजपा के विधायको का जमीनी जनाधार घटा है। कई विधान सभा क्षेत्रों में तो अब लोग मुंह पर खरी खोटी सुनाने में भी बाज नही आ रहे।
इधर प्रदेश में चर्चित रही धार विधानसभा सीट पर कोर्ट के फैसले के बाद शून्य घोषित कर दिये जाने से यहा कांग्रेस के पक्ष में माहोल है। एक बात की अनदेखी नही की जा सकती की विक्रम वर्मा जैसे भाजपा के कददावर नेता और भोजशाला जैसे संवेदनशील मामले की राजनीति के चलते भी कांग्रेस ने बहुत ज्यादा पांव पसार लिये है।
धार जिले की वरिष्ठ नेत्री जमुना देवी के निधन के बाद यहां पर स्वयं मुख्यमंत्री महोदय ने एक सप्ताह तक लगातार जनसम्पर्क किया और इसे अपनी नाक का सवाल मानते हुए इसे कांग्रेस विरूद्व भाजपा का चुनाव ना मानकर सरकार विरूद्व कांग्रेस प्रतिनिधि का चुनाव बनाकर लड़ा।
खुद राज्य मंत्री श्रीमति रंजना बघेल जो कि विधानसभा मनावर से विधायक है 2034 मतो से जीती थी। असंतुष्टो की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। यह बात साफ है कि इस चुनावी समर में भाजपा को लोहे के चने चबवाने के लिए कर्मचारी संगठन पुरी तरह से लामबद्व है।
मध्यप्रदेश में अध्यापको के विविध संवर्ग होने के कारण वे कई नेताओं के झण्डे डण्डे तले बंटे हुए थे। किन्तु अप्रत्याशित रूप से अध्यापक कोर कमेटी के आ जाने से सारे संवर्गो का एक संगठन और एक मंच प्रदेश भर में सक्रिय हो गया है। यहां पर सरकार को चिंता में डालने वाला सबसे बड़ा कारण है अध्यापको की एकता।
यदि इस बार हड़ताल हुई तो परिणाम अप्रत्याशित होंगे। वहीं पिछले अपने एजेण्डे में उमा भारती, बाबुलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान द्वारा अध्यापको को समान वेतन के प्रलोभन से सत्ता सुख पाने और वादा खिलाफी के कारण अध्यापको में एकजुटता है। हाल ही में पंचायत सचिवों के वेतन में दोगुना वृद्वी के बावजूद शिवराज सरकार की वाहवाही के स्वर कही सुनाई नही दिये।
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कारण साफ है कि पुरजौर आक्रोश के बीच जयकारो के स्वर विलोपित हो चुके है। पिछले चुनावी आकड़ो पर गौर करे तो 41 विधानसभा क्षेत्रों में केवल बीना और मेहगांव दो ही विधानसभा क्षेत्र एसे है जहा विधायको ने 5000 से अधिक के अंतर से जीत दर्ज की थी। इसके अलावा 39 विधानसभा क्षेत्रों में यह जीत मामुली अंतर से है।
अध्यापक भी जमीन स्तर पर बहुत ही सक्रिय और मजबुत स्थिती में नजर आ रहे है। इस बात को बल इससे भी मिलता हे कि भाजपाई विधायको की लोकप्रियता इस स्तर की नही है कि वे जीत को सुनिष्चित कर सके । वही अधुरी घोषणाओं से मुख्यमंत्री की विश्वस्नीयता को झटका लगा है।
सिर्फ कर्मचारियों की नाराजगी के मुददे के अलावा ग्रामों में 24 घण्टे की बीजली की के दिवास्वपन अब टूटने लगे है। प्रदेश भर में हजारो स्थानो पर फिडर सेपरेशन के कामों की शुरूआत नही हो पाई है। सड़को पर वोटर जाग्रत हो गया है उसे समझ में आने लगा है कि प्रधानमंत्री सड़क योजना के माध्यम से जो काम हुए है उसका श्रेय किसे देना है।
वही भ्रष्टाचार और नौकरशाही ने भी तंत्र को पंगु बना दिया है। हालात यह है कि यदि सत्ता के गलियारो में कुलांचे भरना है तो शिवराज सिंह चौहान को ना केवल अपने विधायको के लिए जमीनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी बल्कि कर्मचारियों को खुश भी करना होगा।
वर्ना आंकड़ो की और मौजूदा हालात की माने तो शिवराज सिंह चौहान को किसी भी खुशफहमी में रहना घातक ही सिद्व होगा। कर्नाटक विधानसभा चुनाव और छत्तीसगढ़ नक्सली हमले के भाजपा को थोड़ा सा झटका तो लगेगा ही।