शिव को हुई घोषणावीरता और स्मृति विश्राम की बीमारी

अवधेश बजाज/जड़ और चेतन की रेखा सब आदमी की खींची हुई है। ऐसी कोई जड़ नहीं है जिसमें चेतन न छिपा हो और ऐसा कोई चेतन नहीं है जो जड़ में आविष्ट न हो। चट्टान से चट्टान में भी वही सोया है। चैतन्य से चैतन्य में भी वही जागा है। इन्हीं कुछ स्थितियों से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जूझ रहे हैं। वे अत्यधिक आत्ममुग्ध हो गए हैं। दस साल के राजकाज का उन्हें दंभ है या भय! यह खोज का विषय है। दंभ और भय से परे होकर जो खुशी और आनंद के परम चरम पर होता है उसे परमानंद कहते हैं।

भोपाल के एक सबसे बड़े मनोचिकित्सक का मानना है कि यह स्थिति असामान्य है। दंभ और भय से पैदा हुई खुशी एक बहुत बड़ी बीमारी है। जिसे अंग्रेजी में मिक्स अफेक्टिव स्टेट या एक्टिसिवमेनिया कहते हैं। डॉक्टर ने चर्चा के दौरान मुझसे कहा कि जो व्यक्ति अपनी गलती और अपने दुष्कर्मों को छिपाने का प्रयास करता है तो वह अतिउत्साही और आत्ममुग्ध हो जाता है। आत्ममुग्धता के दो स्वरूप हैं। मध्यप्रदेश की राजनीतिक, प्रशासनिक वीथिकाओं से लेकर चौपालों तक शिवराज की आत्ममुग्धता आम हो चुकी है। 

कुर्सी मोह से ग्रसित व्यक्ति कुर्सी जाने के भय से भी आत्ममुग्ध होता है और उसकी कुर्सी को कोई छीन नहीं सकता इस दंभ से भी आत्ममुग्ध होता है। शिवराज की आत्ममुग्धता किस कारण से है यह आगामी चुनाव में जनता तय करेगी। भोपाल के उक्त प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक से जब मैंने चर्चा के दौरान यह पूछा कि कोई व्यक्ति अचानक विभिन्न समुदायों और वर्ग के लोगों के लिए लगभग रोजाना कोई न कोई घोषणाएं करे और भूल जाए ऐसे जातक को क्या बीमारी हो सकती है? तो डॉक्टर का कहना था कि ऐसे व्यक्ति का अवचेतन मन स्वयं को अपनी जिम्मेदारियों के प्रति ईमानदार और सत्यवादी होने का दावा करता है और जब उसकी कसमें और वादे भूलने का काम भी अवचेतन मन कराता है। इस बीमारी को मिनिमल कांगनेटिव इम्पेरमेंट कहा जाता है। इस बीमारी के जातक को साइकोजेेनिक एमनेशिया का टेस्ट कराना चाहिए। शिवराज सिंह चौहान को यह बीमारियां है या नहीं यह डॉक्टर्स और अवाम को तय करना है।

वैसे, मैंने जो महसूस किया और डॉक्टर से शिव भईया के बारे में जो जानकारी ली उसके मुताबिक यह दोनों बीमारियां उन्हें हैं। उसके कुछ उदाहरण हैं। सार्वजनिक समारोहों एवं कार्यक्रमों में उनकी बॉडी लैंग्वेज यह बताती है कि वे अत्यधिक आत्ममुग्ध और सपनों के सौदागर हो गए हैं। ऐसा वे स्वयं भी स्वीकारते हैं। उनके नकलीपन का आलम यह है कि एक कार्यक्रम में डेढ़-दो सौ लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर रखा था। एक व्यक्ति की तरफ मुखातिब होते हुए बोले- और क्या हाल हैं बताओ कैसे आए? इस प्रश्र पर उसने जवाब दिया मैं ठीक हूं बस, आपके दर्शन करने चला आया। वह भीड़ में ही खड़ा रहा। 

शिवराज आगे बढ़े वह व्यक्ति फिर सामने टकराया शिव ने उससे हंसते हुए नमस्कार किया फिर पूछा और घर में सब ठीक है, अम्मा-बाबूजी कैसे हैं? तत्संबंधी व्यक्ति बुदबुदाया और बोला शिवराजजी तो मेरे माता-पिताजी को तो जानते ही नहीं हैं, यह सवाल लिए वह घर चल दिया। जब यह बात मुझे मालूम पड़ी तो मुझे दिग्विजय सिंह की याद आई। उनकी याददाश्त बहुत तेज है। बीस साल पहले वे कब, कहां और कैसे मिले थे, उनकी स्मृति में रहता है। मुझे ऐसा लगा कि कहीं शिवराज, दिग्विजय सिंह की देखा-देखी तो ऐसा नहीं कर रहे हैं। स्वयं को सच्चा और ईमानदार सिद्ध करने के लिए शिवराज ऐसा उपक्रम कर रहे हैं।

एक वाकया 25 साल पहले का है। मध्यप्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के नीलकंठ (सीहोर) घाट में एक नवयुवक गले तक डूबा हुआ था। गांव के सारे लोग इस नौजवान को देखने के लिए जुटे थे। अचानक गांव के लोगों में हलचल बढ़ती है और यह नवयुवक मां नर्मदा को साक्षी मानते हुए घोषणा करता है कि इस क्षेत्र की सेवा के लिए आजीवन अविवाहित रहेगा। ठीक तीन साल बाद वह भाजपा के टिकट से इस क्षेत्र का विधायक चुना जाता है। इस दौरान वह अपनी पहली ही सार्वजनिक घोषणा भूलकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाता है। यह युवक कोई और नहीं शिवराज सिंह ही है, जो प्रदेश में मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन है।
शिवराज सिंह चौहान की इन दोनों बीमारियों के कारण जाने-अनजाने में स्वयं को भारतीय जनता पार्टी और अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भी ऊपर मानने लगे हैं।

 विगत नौ वर्षों में उन्होंने सत्ता और संगठन में किसी को भी नहीं उभरने दिया। बड़ी शालीनता से अपने साथियों की नेतृत्व क्षमता की हत्या करवाई और अपनी वाहवाही के लिए स्वयं को किसी कंज्यूमर प्रोडक्ट की तरह अपनी ब्रांडिंग करवाई। हालात यह हैं कि प्रदेश में हर दिन औसतन तीन से अधिक घोषणाएं करने वाले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी इस असाधारण गति के चलते कई बार भूल जाते हैं और एक ही घोषणा कुछ समय बाद दोबारा कर बैठते हैं। ऊपर से उनकी घोषणाओं में से आधी से ज्यादा फाइलों से आगे नहीं बढ़ पाई हैं जो सरकार के लिए मुश्किल और मखौल का सबब बनता जा रहा है। हालात यह है कि राज्य सरकार की हालत किसी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी की तरह हो गई है। 

हर सप्ताह या हर दूसरे सप्ताह यहां तक की कई बार दो सप्ताह में दो बार भोपाल में कोई इवेंट होता है। सरकार वहां किराए की भीड़ जमा कर प्रेजेंटेशन देती है। प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह खुद इस कंपनी के सीईओ बन गए हैं। वहां जो भी घोषणाएं होती हैं, उन पर शायद ही कभी अमल का प्रयास किया जाता है। अपनी घोषणाओं को लेकर सरकार खुद भ्रमित रहती है, फिर जिनके लिए ये घोषणाएं होती है, उनका तो कहना ही क्या। उदाहरण के लिए शिवराज सिंह अपने पहले कार्यकाल के बाद से अलग-अलग शहरों में निवेशकों को लुभाने के लिए कई इन्वेस्टर्स मीट कर चुके हैं। पिछली मीट इंदौर में की गई थी। यहां वे उद्योगपतियों से प्रदेश में निवेश करने का अनुरोध करते हैं, लेकिन भोपाल में पिछले दिनों हार्टी एक्सपो के दौरान वे किसानों को नई सीख देते हैं। वे लोगों से अपील करते हैं कि उद्योग-धंधे मत लगाओ, खेती करो। उद्योग लगाओगे तो पैसा आयकर वाले ले जाएंगे, खेती करोगे तो पैसा आपके पास रहेगा। ऐसे में समझ नहीं आता कि उद्योग लगाएं या खेती करें।

हाल ही में दशहरा मैदान पर किसान महापंचायत का आयोजन किया गया। यहां किसानों की मांग थी कि उनके 50 हजार तक के बिल माफ किए जाएं, लेकिन सरकार ने उन्हें साल में दो बार बिजली के बिल भरने का झुनझुना थमा दिया। ये हाल तब हैं जब खुद भाजपा अपने दूसरे कार्यकाल के समय जारी घोषणा पत्र में इसका वादा कर चुकी है। इसी घोषणा पत्र में सरकार ने 50 हजार की कर्ज माफी का वादा भी किया हुआ है, लेकिन इसे मूर्त रूप नहीं दिया गया है।

शिवराज सिंह के इस प्रोपेगंडा में उनके वरिष्ठ नेता भी सुर से सुर मिलाते दिखते हैं। हाल ही में जंबूरी मैदान पर आयोजित किसान पंचायत में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के भाषण के दौरान भीड़ मांग कर रही थी कि किसानों के 50 हजार तक के कर्जे माफ किए जाएं, तब राजनाथ सिंह कुछ देर चुप हुए, फिर कहा हां शिवराज सिंह देवदूत हैंं। जब भीड़ ने दोगुनी तेज आवाज में कर्ज माफी की आवाज उठाई तो उन्होंने इसे सफाई से टाल दिया। वे बोले, केंद्र सरकार ने देश भर के किसानों के 90 हजार करोड़ के कर्जे माफ किए हैं, लेकिन कैग की रिपोर्ट के मुताबिक इसमें व्यापक पैमाने पर गड़बड़ी हुई हैं। लेकिन वे बताना भूल गए या उन्हें पता नहीं था कि इस योजना में सबसे ज्यादा गड़बड़ी मध्यप्रदेश में ही हुई हैं। यही कारण है कि जब उन्होंने इस मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की तो उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री और तमाम सारे मंत्रियों के चेहरे लटक गए थे।

साधना में शक्ति है तो तप में बल है। और ये दोनों चीजें शिव के पास हैं। उन शिव ने मन से तप करने वालों को फल दिए तो इन शिव ने जनता को घोषाणाओं और आश्वासनों का जखीरा दिया है। पिछले आठ साल से शिव अपने राज में घोषणा ही घोषणा करते आ रहे हैं इसलिए उन्हें अब घोषणावीर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। घोषणाओं की दुनिया में रहने वाले शिव एक बार फिर प्रदेश की सत्ता हासिल करने के लिए जनता से चिरौरी कर रहे हैं। हालांकि, हाल ही में हुए नगर पंचायतों के उप चुनावों में स्थानीय लोगों ने भाजपा को पराजित करते हुए आईना दिखाया है लेकिन भाजपा इसको कोई सबक नहीं मान रही है और विधानसभा चुनावों में मिशन 2013 को फतह करने के लिए आतुर है। एक सर्वे के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा का जनाधार घटता जा रहा है, इसके पीछे बड़े कारण आ रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने जो महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं उनको अभी तक अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है। हजारों की संख्या में आज भी घोषणाएं अधूरी हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि और पांच साल सत्ता में रहे तो भी पूरा कर पाना मुश्किल होगा।

मुख्यमंत्री की कोई भी घोषणा शासन की योजना मानी जाती है। प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव केएस शर्मा के मुताबिक- मुख्यमंत्री की कोई घोषणा यदि बहुत लंबे समय से अधूरी पड़ी है तो इसका सीधा अर्थ है कि उसमें वित्त या विधि की ऐसी अड़चन है जिसे दूर करना मुश्किल है। उदाहरण के लिए पांच साल पहले मुख्यमंत्री ने अनुसूचित जाति पंचायत में इस वर्ग के साहित्यकारों और कलाकारों को पुरस्कार देने की घोषणा की थी। इस घोषणा पर संस्कृति मंत्रालय ने शासन को बताया कि उसने पुरस्कारों का किसी वर्ग विशेष से संबंधित कोई दायरा तय नहीं किया है। लिहाजा इस घोषणा को पूरा करने का काम अनुसूचित जाति कल्याण मंत्रालय को सौंपा जाए। तब से दोनों मंत्रालयों के बीच यह घोषणा अटकी पड़ी है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा यही है कि वे जनता के लिए कितना कर सकें। यही मानकर उन्होंने हर रोज औसतन तीन घोषणाएं करते हुए जनता की अपेक्षाएं बढ़ा दी हैं। उनके द्वारा प्रारंभ किया गया जनदर्शन तो पूरी तरह अपेक्षाओं पर ही आधारित हो गया था। जब देखा गया कि सभी अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया जा सकता है तब मजबूरी में जनदर्शन कार्यक्रम को विलोप कर दिया गया। विकल्प के तौर पर शहर और नगर क्षेत्रों में जनदर्शन जारी रखने का ऐलान किया गया लेकिन इस कार्यक्रम की परिभाषा अब तक किसी के समझ में नहीं आई है। पार्टी पंडितों का कहना है कि अगर जनता का विश्वास जीतना है तो जो घोषणाएं की गईं हैं उन्हें पूरा करना होगा। लेकिन, राजनैतिक पंडित और जनता के बीच रहने वाले प्रबुद्ध लोगों का मानना है कि जिस तरह से वे शिव वरदान देकर याद नहीं रखते थे, इसी तरह ये शिव कब क्या घोषणाएं कर दें, बाद में याद नहीं रहता है।

आरोप लग रहे हैं कि मुख्यमंत्री घोषणा करने के बाद भूल जाते हैं, इसके पीछे कारण उन्हें नहीं बल्कि प्रशासनिक महकमें में जो काकस जमा हुआ है, उसे ही दोषी ठहराया जाना चाहिए क्योंकि कई बार देखा गया है कि शिव ने जो घोषणा की उसे अफसरों ने एक कान से सुनकर दूसरे कान से उड़ा दिया। अधिकारियों की मेहरबानी से इतना जरूर है कि कांग्रेस के शासन में मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह को मिस्टर बंटाधार के नाम से पुकारा जाने लगा था तो भाजपा के शासनकाल में शिव को घोषणावीर कहा जाने लगा है। घोषणा करके उसे भुला देने का चौहान ने राजनीति में प्रवेश के समय बनाई थी जो अब उनके शासनकाल में और पक्की हो गई दिखती है। यदि चौहान के कार्यकाल पर निगाह डाली जाए तो बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश के इतिहास में घोषणा करने के मामले में वे सबसे आगे हैं। पिछले सात साल का उनका रिकॉर्ड बताता है कि उन्होंने एक दिन में औसतन तीन से अधिक घोषणाएं की हैं।

गौरतलब है कि 2003 में कांग्रेस को इसी बीएसपी (बिजली, सड़क और पानी) फेक्टर के चलते सत्ता गंवानी पड़ी थी। चुनावी वर्ष में अब यही फेक्टर यहां फिर जोर पकड़ रहा है।  हालत यह है कि भाजपा विधायक दल की बैठक में विधायकों ने कहना शुरू कर दिया है कि चुनाव में बिजली और सड़क की बदहाली भारी पड़ सकती है। 13 दिसंबर 2012 को विधानसभा सत्र के आखिरी दिन पार्टी विधायक दल की बैठक में विधायकों ने मुख्यमंत्री से साफ.-साफ  कहा कि यदि इन क्षेत्रों में जल्द ही कुछ काम नहीं किया गया तो चुनावी मैदान में मोर्चा संभालना मुश्किल हो जाएगा। दरअसल, 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सौ दिन के भीतर हर घर में 24 घंटे बिजली पहुंचाने की घोषणा दम तोड़ चुकी है।

घोषणा करते-करते मुख्यमंत्री अभी तक नहीं थके हैं लेकिन उनकी पार्टी के दिग्गज नेताओं को अखरने लगा है। क्योंकि वे जानते हैं कि जनता के बीच तो उन्हें रहना है और विधानसभा चुनाव के दौरान किसी ने घोषणा के बारे में प्रश्न कर दिया तो उत्तर दे पाना मुश्किल हो जाएगा। यही कारण है कि उज्जैन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान वरिष्ठ नेता और सांसद रघुनंदन शर्मा से रहा नहीं गया था और उन्होंने खरी-खरी कहा था कि राज्य सरकार के कई मंत्री इसलिए बेलगाम घोषणाएं कर रहे हैं क्योंकि उनके मुखिया भी ऐसा ही कर रहे हैं। शर्मा के मुताबिक घोषणाएं महज अखबारों में छपने और वाहवाही लूटने के काम आ रही हैं।

 विधानसभा में ही मंत्रियों द्वारा विधायकों के प्रश्नों पर दिए गए आश्वासनों की संख्या बताती है कि करीब ढाई हजार आश्वासन अब तक पूरे नहीं हो पाए हैं। मुख्यमंत्री भी सदन के भीतर यह मान चुके हैं कि उन्होंने घोषणाएं की हैं। उनकी मानें तो कुछ घोषणाएं पूरी नहीं हुईं जिनके पीछे तकनीकी गड़बडिय़ां बताई गईं। हालांकि मुख्यमंत्री का दावा है कि उन्होंने 80 फीसदी घोषणाएं पूरी कर दीं। लेकिन मुख्यमंत्री की समीक्षा बैठक की ताजा रिपोर्ट खुद ही उनके दावे की कलई खोल देती है।  इसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने सात साल में कुल 7,334 घोषणाएं की हैं। मगर इनमें से 3,513 यानी आधे से अधिक घोषणाएं अटकी हुई हैं। वहीं करीब एक हजार घोषणाएं ऐसी हैं जो या तो शुरू नहीं हो सकीं या जिन्हें शुरू करा पाना अब संभव नहीं हो पाया है। अधर में फंसी इन घोषणाओं में से पंचायत व ग्रामीण विकास से संबंधित 485, जल संसाधन की 426, राजस्व के 231 और स्वास्थ्य विभाग से संबंधित 193 हैं।

सरकारी वित्त विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी राज्य का बजट योजनाओं के आधार पर तैयार किया जाता है। लेकिन मुख्यमंत्री जिस अनुपात में घोषणाओं की झड़ी लगा रहे हैं उससे प्रदेश का बजट पूरी तरह से गड़बड़ा गया है। वित्त विभाग इसे लेकर परेशान है कि आखिर सीएम घोषणाओं को कैसे और कब पूरा किया जा सके शायद राज्य के वित्त मंत्री राघवजी इसीलिए कहा भी है कि यदि भाजपा सत्ता में लौटी भी तो पांच साल तक घोषणाओं को अमलीजामा पहनाना संभव नहीं हो सकेगा। उनके मुताबिक यदि आपात कोष का खजाना भी खोल दिया जाए तो सौ करोड़ रुपए से अधिक रकम नहीं जुटाई जा सकती है। चौहान की घोषणाओं को पूरा करने के लिए बारह हजार करोड़ रुपए की आवश्यकता है। सरकार की माली हालत इतनी खराब है कि उसे अपने सभी महकमों का बजट कम करना पड़ा है। चौहान सरकार के कार्यकाल में यह प्रदेश 85 हजार करोड़ रुपये का कर्जदार बन चुका है। बावजूद इसके मुख्यमंत्री द्वारा नित नई-नई घोषणाएं करना कर्ज लेकर घी पीने जैसा लग रहा हैं।

इसी तरह, चार साल पहले मुख्यमंत्री ने प्रदेश में बीस हजार आंगनवाड़ी खोलने की घोषणा की थी। तब तक सरकार ने बेरोजगारों को भर्ती करने की कोई तैयारी नहीं की थी। बावजूद इसके मुख्यमंत्री ने आंगनवाडिय़ों में बेरोजगारों को भर्ती करने की घोषणा कर दी। जनसंपर्क विभाग ने भी अखबारों में विज्ञापन जारी कर दिया। उसमें पांच लाख से अधिक आवेदन आए। मगर सरकार ने यह पूरी प्रक्रिया रद्द कर दी। इस दौरान सरकार के विज्ञापन में तीन करोड़ रुपए तो खर्च हुए ही, बेरोजगारों के भी आवेदन भरने में एक करोड़ रुपए खर्च हो गए।
मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं। लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं। इसमें वह घोषणा भी शुमार है जिसमें उन्होंने किसानों का पचास हजार रुपये तक का कर्ज माफ  करने की घोषणा की थी।

हकीकत यह है कि यहां बिजली का उत्पादन मांग के मुकाबले आधा भी नहीं हो पा रहा है। चौहान सरकार का दूसरा बड़ा सिरदर्द राजकीय राजमार्गों को लेकर है। राज्य में लोक निर्माण विभाग की कुल 25 हजार किलोमीटर सड़कें हैं। मगर विभागीय रिपोर्ट के मुताबिक इसमें भी 9,500 किलोमीटर सड़कें खस्ताहाल हैं।  वहीं मुख्यमंत्री की 31 दिसंबर तक 15 हजार किलोमीटर सड़कें बनाने की घोषणा मखौल बनकर रह गई है। खुद मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र बुधनी से राजधानी तक 80 किमी का फासला सड़क मार्ग से तय करने में साढ़े तीन घंटे का समय लगता है। मजेदार यह भी है कि मुख्यमंत्री चौहान खुद अपने लिए की गई घोषणाओं पर भी कायम नहीं रहते। इनमें न तो वित्त और न ही प्रशासन का ही कोई पेंच फंसता है। मसल नए 2008 में जब केंद्र ने पेट्रोल की कीमत में बढ़ोतरी की तो उसके बाद चौहान की वह घोषणा सिर्फ घोषणा ही बनी हुई है जिसमें उन्होंने सप्ताह में एक दिन साइकिल से मंत्रालय जाने की बात की थी। बेशक चौहान ने इन सालों में घोषणाओं के बूते लोकप्रिय नेता की छवि बना ली है लेकिन अब इनकी जमीनी हकीकत सामने आने के साथ-साथ राज्य भाजपा की पेशानी पर बल पडऩा शुरू हो गए हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कुल 7,334 घोषणाएं की हैं और 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं। लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं।

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