प्रशासनिक पारदर्शिता : घोड़े की बला तबेले की सिर

मध्यप्रदेश सरकार  की तर्ज पर अन्य सरकारें भी सूचना के अधिकार के तहत मिले नागरिक अधिकार को क़ानूनी दांवपेंच में उलझाये रखना चाहती हैं | इससे एक और जहाँ आवेदनों का ढेर लगता जा रहा है| वहीं सरकार की पोलपट्टी छिपी  रहती है | सबको बेहतरीन बहाना मिल गया है, कि उच्चतम न्यायालय ने नियुक्ति के सम्बन्ध में कोई मार्गदर्शी फैसला दिया है |

उसकी ठीक से व्याख्या हो जाये, गाड़ी आगे बड़े | सरकारी काम  तो हर जगह एक जैसे ही है |न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी | कहावत पुरानी है अब राधा को सरकार जैसे चाहे और जब चाहे नचा लेती है  और जब चाहे...!

माननीय उच्चतम न्यायालय ने ने केंद और राज्य सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त पद पर सेवा निवृत न्यायाधीश की नियुक्ति करने तथा आयोगों में सारे निर्णय दो न्यायाधीशों से जिनमे एक न्यायिक और एक गैर न्यायिक हो से कराने संबधी आदेश दिया है | इसी आदेश की व्याख्या में यह भी कहा  गया है कि राज्य सूचना आयोग में उच्च न्यायलय से सेवा निवृत न्यायाधीशों को प्राथमिकता  दी जाएँ  और केन्द्रीय सूचना आयोग में राज्यों के सेवा निवृत मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को प्राथमिकता  मिले | इस आदेश के बाद सब दूर सूचना का अधिकार दूर की कौड़ी हो गया है |नीचे वाले उपर ले जाकर राज्य आयोग में मामला  फंसा देते है ,और  वहाँ स्थान खाली  है |

न्यायपालिका में पूर्ण श्रदधा के साथ दो उक्तियाँ “न्याय होना ही नहीं दिखना भी चाहिए”और “न्याय कोई पर्दे के पीछे छिपा कर  रखने वाली देवी नहीं है | उसे सामान्य लोगों की आँखों के सामने आना और उनकी टिप्पणी को भी सुनना चाहिए|” फिर से निवेदन बमुश्किल मिले इस अधिकार की रक्षा उच्चतम न्यायलय नहीं करेगा,  तो कौन  करेगा |

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