राजेश जयंत। झाबुआ के मेघनगर ब्लॉक में स्थित छोटा सा गांव चारेल इन दिनों सुर्खियों में है, लेकिन वजह बेहद दर्दनाक है। 17 नवंबर को यहां एक शवयात्रा को कंधे पर उठाए परिजन गले तक पानी में उतर गए। वजह? श्मशान तक जाने वाला एकमात्र रास्ता बारिश के बाद पूरी तरह जलमग्न हो चुका था।
यह कोई पहला मौका नहीं। ग्रामीण बता रहे हैं कि हर साल मानसून में यही हाल होता है। शव को बचाते हुए खुद लोग डगमगा जाते हैं, फिर भी दो दशक से एक छोटी सी पुलिया बनाने की मांग फाइलों में घूमती रहती है। जब भी किसी की मौत होती है, अंतिम यात्रा सम्मान की बजाय संघर्ष बन जाती है।
गांव वालों का गुस्सा साफ है - “विकास की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, करोड़ों की योजनाएं पास हो जाती हैं, पर एक पुलिया क्यों नहीं बन पाती?” सरपंच से लेकर विधायक-सांसद तक सबको याद दिलाया जाता है, हर चुनाव में वादा भी होता है, लेकिन काम आज तक शून्य।
मामला तब और गरमा गया जब जयस के युवा नेता अनेश भूरिया ने सोशल मीडिया पर घटना की तस्वीरें और वीडियो शेयर किए। उनकी पोस्ट में सीधा सवाल था - “आदिवासी समाज के विकास का दम भरने वाले जनप्रतिनिधि कौन सी नींद में हैं कि एक छोटा सा पुल तक नहीं बनवा पाए? ऐसी राजनीति पर शर्म आनी चाहिए।” यह पोस्ट अब वायरल हो चुकी है और पूरे इलाके में चर्चा का विषय बनी हुई है।
अब ग्रामीणों ने साफ अल्टीमेटम दे दिया है - अगर इस बार भी सिर्फ आश्वासन मिला तो बड़ा जनआंदोलन होगा। उनकी तीन मुख्य मांगें हैं:
- श्मशान मार्ग पर तुरंत पक्की पुलिया बने
- वैकल्पिक रास्ते की व्यवस्था हो
- बरसात में इमरजेंसी मदद का स्थायी इंतजाम हो
चारेल की यह त्रासदी दरअसल सिर्फ एक गांव की नहीं, पूरे आदिवासी अंचल में बुनियादी सुविधाओं की उपेक्षा की जीती-जागती मिसाल है। सवाल वही पुराना है - विकास की चमकती रिपोर्टों और ज़मीनी हकीकत के बीच यह खाई कब तक बनी रहेगी? अंतिम संस्कार जैसी आखिरी गरिमा भी अगर पानी में डूब जाए, तो फिर हम किस तरह के समाज और सिस्टम की बात कर रहे हैं?
अब देखना यह है कि प्रशासन और जनप्रतिनिधि इस बार मौन तोड़ते हैं या एक और मानसून तक इंतज़्ज़त पानी में बहने देते हैं।
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