भारत की स्टील क्रांति अब फंडिंग के मोड़ पर अटक गई है। एक तरफ सरकार का टारगेट है 2030 तक 300 मिलियन टन सालाना क्षमता तक पहुँचने का, दूसरी तरफ IEEFA की ताज़ा रिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि अगले कुछ सालों में जो फैसले लिए जाएँगे, वही अगले तीस-चालीस साल के कार्बन एमिशन को तय कर देंगे।
सवाल सीधा है – क्या भारत बिना मजबूत पब्लिक फाइनेंस सपोर्ट के ग्रीन स्टील की राह पर चल पाएगा?
रिपोर्ट बताती है कि भारत के पास अनोखा मौका है क्योंकि अभी 92% नई स्टील क्षमता बननी बाकी है। अगर यह सारी क्षमता पुराने कोयला आधारित ब्लास्ट फर्नेस पर चली गई तो 2060-70 तक भयंकर कार्बन लॉक-इन हो जाएगा। एक बार प्लांट बन गया तो वह चार दशक तक चलता रहेगा, और उसकी गलती आने वाली पीढ़ियों को चुकानी पड़ेगी।
दुनिया में ग्रीन स्टील का abatement cost बहुत बड़ा स्प्रेड दिखाता है – कहीं 110 डॉलर प्रति टन CO₂, कहीं 1168 डॉलर तक। यानी सिर्फ कार्बन प्राइसिंग से काम नहीं चलेगा। दुनिया के सफल मॉडल बता रहे हैं कि दो चीजें सबसे कारगर हैं – गवर्नमेंट बैक्ड क्रेडिट गारंटी (जिससे एक रुपये पब्लिक मनी पर ढाई-तीन रुपये प्राइवेट कैपिटल आ जाता है) और कॉन्ट्रैक्ट्स फॉर डिफरेंस (CfD) यानी नीलामी से तय हो कि खरीदार असल में कितना प्रीमियम देने को तैयार हैं।
स्वीडन जैसे देशों में हाइड्रोजन आधारित प्रोजेक्ट को 20-30% प्रीमियम पर लॉन्ग-टर्म कॉन्ट्रैक्ट मिले हैं, जबकि गैस आधारित ट्रांज़िशनल प्रोजेक्ट खरीदार न मिलने से अटक गए। बाजार अब दिखावे का ग्रीन स्टील नहीं, पूरी वैल्यू चेन का क्लीन स्टील चाहता है – ऊर्जा से हाइड्रोजन तक, हाइड्रोजन से स्टील तक।
भारत में सरकार नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल स्टील तैयार कर रही है, संभावित 5000 करोड़ का फंड, जिसमें PLI, कन्सेशनल लोन और रिस्क गारंटी जैसे टूल्स हो सकते हैं। ग्रीन पब्लिक प्रोक्योरमेंट पॉलिसी भी ड्राफ्ट में है जिसमें सरकारी खरीद का 25-37% कम कार्बन स्टील से आएगा। लेकिन 2024 में फाइनेंस मिनिस्ट्री ने सेंट्रलाइज़्ड ग्रीन स्टील खरीद एजेंसी का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। 2026 में आने वाली कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम भी स्टील सेक्टर पर सख्त कैप लगाएगी, पर उसका असर कार्बन प्राइस की सख्ती पर निर्भर करेगा।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि प्राइवेट सेक्टर अभी भी हिचक रहा है। तकनीक नई है, कैपेक्स भारी है, रिटर्न दूर की कौड़ी। बिना पब्लिक कैपिटल के शुरुआती प्रोजेक्ट आगे नहीं बढ़ सकते।
IEEFA के तीन साफ सुझाव हैं:
- क्रेडिट गारंटी स्कीम शुरू करो,
- CfD नीलामी से असली प्रीमियम पता करो,
- MSME सेक्टर के लिए प्रोजेक्ट प्रिपरेशन फैसिलिटी बनाओ ताकि वे पीछे न रह जाएँ।
रिपोर्ट कहती है कि भारत को यूरोप जैसी मोटी सब्सिडी देने की ज़रूरत नहीं, बस स्मार्ट इंस्ट्रूमेंट्स चाहिए जो कम पब्लिक मनी से ज्यादा प्राइवेट कैपिटल खींच लाएँ।
समय बहुत कम है। दुनिया तेज़ी से बदल रही है, खरीदार बदल रहे हैं, तकनीक रफ्तार पकड़ रही है। अगर भारत अभी सही कदम उठा ले तो वह आने वाली ग्रीन स्टील अर्थव्यवस्था का लीडर बन सकता है। नहीं तो अगले चार दशक की कार्बन लागत हमें बहुत पीछे धकेल देगी।
यह सिर्फ स्टील की कहानी नहीं, यह उस निर्णायक मोड़ की कहानी है जहाँ भारत को तय करना है कि उसका विकास किस रंग का होगा।
.webp)