9 अक्टूबर 2025 को लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की आयोजित कांशीराम पुण्यतिथि पर मेगा रैली ने भारतीय जातिवादी राजनीति में एक नया मोड़ ला दिया है। यह रैली न केवल बीएसपी की लंबे समय बाद की राजनीतिक वापसी का प्रतीक बनी, बल्कि लाखों की संख्या (5 लाख से अधिक) में जुटे समर्थकों के साथ पार्टी की जमीनी ताकत को फिर से उजागर किया। लेकिन क्या यह ऊर्जा मध्य प्रदेश (एमपी) तक फैलेगी? क्या बीएसपी एमपी में बहुजन समाज की प्रमुख प्रतिनिधि पार्टी के रूप में उभरेगी, और क्या इससे भीम आर्मी जैसी युवा-केंद्रित संगठन कमजोर पड़ जाएंगी? इस विश्लेषण में तथ्यों और तर्कों के आधार पर इन सवालों की पड़ताल की जाएगी।
रैली की सफलता: बीएसपी की पुनरुत्थान की आधारशिला
रैली की सफलता को बीएसपी के लिए एक 'राजनीतिक पुनरागमन' के रूप में देखा जा रहा है। मायावती ने भाषण में दलितों और पिछड़ों के सशक्तिकरण पर जोर दिया, और 2007 की अपनी ऐतिहासिक जीत का जिक्र किया, जब बीएसपी ने यूपी में पूर्ण बहुमत हासिल किया था। यह रैली न केवल यूपी तक सीमित रही, बल्कि पड़ोसी राज्यों में बीएसपी कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने वाली साबित हुई। एमपी में बीएसपी की वर्तमान स्थिति कमजोर है। 2023 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को मात्र 2.8% वोट शेयर मिला था, और कोई सीट नहीं जीती। लेकिन रैली के बाद, बीएसपी ने बिहार में 'लगभग सभी सीटों' पर अकेले लड़ने की घोषणा की है, जो एमपी जैसे राज्यों में भी विस्तार की रणनीति का संकेत देती है।
तर्क यह है कि यूपी की सीमा से सटे एमपी के जिलों (जैसे भिंड, मुरैना, ग्वालियर, छतरपुर, टीकमगढ़ इत्यादि) में दलित वोट बैंक (लगभग 16-18%) साझा है, और रैली की गूंज इन क्षेत्रों में बीएसपी की स्थानीय इकाइयों को सक्रिय कर सकती है। ऐतिहासिक रूप से, 1990 के दशक में बीएसपी ने एमपी में 11 सीटें जीती थीं, जो साबित करता है कि पार्टी यहां बहुजन प्रतिनिधित्व की क्षमता रखती है। रैली से मिली गति कार्यकर्ताओं को संगठन मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित करेगी, खासकर 2028 के एमपी चुनावों से पहले।
एमपी में बीएसपी की सक्रियता बढ़ने के तर्क: भौगोलिक और सामाजिक निकटता
एमपी में बीएसपी की सक्रियता बढ़ने का प्राथमिक तर्क भौगोलिक निकटता है। यूपी-एमपी सीमा पर स्थित दलित बहुल क्षेत्रों में रैली की खबरें सोशल मीडिया और स्थानीय नेटवर्क के जरिए तेजी से फैलीं, जिससे बीएसपी के पुराने कार्यकर्ता सक्रिय हो सकते हैं। मायावती का 'अकेले लड़ो' का संदेश एमपी में गठबंधन-पीड़ित दलित वोटों को एकजुट करने का अवसर देता है। उदाहरण स्वरूप, 2025 में एमपी में बीएसपी ने कुछ स्थानीय स्तर पर प्रयास किए हैं, जैसे दलित मुद्दों पर छोटे प्रदर्शन, लेकिन रैली ने इन्हें राष्ट्रीय पटल पर लाने की क्षमता प्रदान की।
तर्क यह भी है कि बीजेपी की सत्ता में दलित असंतोष बढ़ा है। जैसे जुलाई 2025 में एमपी के एक मामले में दलित युवकों पर पुलिस अत्याचार के आरोप, जो बीएसपी जैसे पारंपरिक दलों को फायदा पहुंचा सकता है। यदि बीएसपी एमपी में 5-7% वोट शेयर हासिल कर लेती है, तो यह बहुजन समाज की 'प्रतिनिधि पार्टी' के रूप में उसकी छवि को मजबूत करेगी, क्योंकि पार्टी का फोकस बहुजन (दलित-ओबीसी) एकता पर है, जो भीम आर्मी जैसे युवा आंदोलनों से अलग, अधिक संस्थागत है।
भीम आर्मी पर प्रभाव: प्रतिस्पर्धा से कमजोरी की संभावना
भीम आर्मी, एमपी में 2025 में काफी सक्रिय रही है। जून 2025 में ग्वालियर हाईकोर्ट परिसर में डॉ. अंबेडकर की मूर्ति स्थापना को लेकर बड़े प्रदर्शन हुए, और जुलाई में पुलिस अत्याचार के खिलाफ मार्च निकाला गया। यह संगठन युवा दलितों को आकर्षित करता है, जो जमीनी आंदोलनों पर केंद्रित है। लेकिन बीएसपी की रैली से उत्पन्न प्रतिस्पर्धा भीम आर्मी को कमजोर कर सकती है।
तर्क यह है कि दोनों ही दलित वोट बैंक पर निर्भर हैं, और रैली से बीएसपी को मिली वैधता (जैसे 2027 चुनाव घोषणा) युवा समर्थकों को पारंपरिक पार्टी की ओर खींच सकती है। मायावती ने पहले भीम आर्मी को 'बीजेपी का उत्पाद' कहा है, जो वैचारिक टकराव पैदा करता है। एमपी में वोट विभाजन से भीम आर्मी की आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) कमजोर पड़ सकती है, खासकर यदि बीएसपी स्थानीय स्तर पर रैलियां आयोजित करती है।
हालांकि, यह कमजोरी तत्काल नहीं होगी। भीम आर्मी की ताकत उसके आंदोलनकारी स्वरूप में है, लेकिन लंबे समय में बीएसपी की संगठनात्मक श्रेष्ठता हावी हो सकती है।
निष्कर्ष: संभावना अधिक, लेकिन चुनौतियां बरकरार
मायावती की रैली बीएसपी को एमपी में पुनर्जीवित करने की क्षमता रखती है, जहां वह बहुजन समाज की प्रमुख आवाज बन सकती है। तथ्य (रैली की सफलता) और तर्क (साझा वोट बैंक, प्रतिस्पर्धा) इसकी पुष्टि करते हैं, लेकिन यह निर्भर करेगा स्थानीय नेतृत्व और चुनावी रणनीति पर। भीम आर्मी कमजोर पड़ने की संभावना है, लेकिन यह दलित राजनीति को समग्र रूप से मजबूत भी कर सकती है। अंततः, भारतीय राजनीति में प्रभाव अक्सर अप्रत्याशित होते हैं। बीएसपी को एमपी में सफलता के लिए जमीनी मेहनत की जरूरत होगी।