फैशन का काला सच: कोयले से बनते कपड़े, मज़दूरों की मजबूरी What Fuels Fashion in Hindi

Bhopal Samachar
सोचो, एक छोटा सा कमरा है। खिड़की बंद है, बाहर सूरज तप रहा है और अंदर भट्ठी जैसी गर्मी है। पसीने से तरबतर मज़दूर रंगाई की मशीन के पास खड़ा है। धुएं की गंध उसकी साँसों में घुल चुकी है। यही है वो हकीकत, जिसे फैशन इंडस्ट्री बड़ी चतुराई से अपने चमकते-दमकते शो-रूम्स और विज्ञापनों के पीछे छुपा देती है। लंदन से आई फैशन रिवोल्यूशन की ताज़ा रिपोर्ट ने इस परत को उतार दिया है। रिपोर्ट का नाम है “What Fuels Fashion?” और इसमें साफ़ लिखा है-कपड़े बनाने वाली अरबों-खरबों डॉलर की इंडस्ट्री आज भी कोयला और गैस जलाकर चल रही है।

सप्लाई चेन में धुआँ ही धुआँ

दुनिया के 200 सबसे बड़े फैशन ब्रांड्स की जांच हुई। ये वो कंपनियाँ हैं जिनकी सालाना कमाई 2.7 ट्रिलियन डॉलर से भी ज़्यादा है। लेकिन जलवायु संकट से लड़ने की जिम्मेदारी निभाने में ये सब नाकाम नज़र आए।
  • सिर्फ 18% ब्रांड्स ने कहा कि वे कोयले से छुटकारा पाएँगे।
  • 10% ने सप्लाई चेन में नवीकरणीय बिजली लाने की कोई ठोस योजना बताई।
  • और केवल 7% ने ज़िक्र किया कि वे पुराने बॉयलर और भट्टियों की जगह इलेक्ट्रिक विकल्प अपनाएँगे।
मतलब, 90% से ज़्यादा ब्रांड्स अब भी वही कर रहे हैं जो सौ साल पहले किया जाता था: कोयला जलाओ, भट्ठी गरम करो और कपड़े रंगो।

सबसे आसान हल, फिर भी नाकामी

रिपोर्ट कहती है कि फैशन इंडस्ट्री के पास क्लाइमेट एक्शन का सबसे आसान मौका है-क्लीन हीट। यानी हीट पंप और इलेक्ट्रिक बॉयलर जैसे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल, जो पहले से मौजूद है और इंडस्ट्री में बिना बड़ी रुकावट अपनाई जा सकती है।

ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जैन रोसेनो साफ़ कहते हैं-“टेक्सटाइल इंडस्ट्री की ज़्यादातर प्रोसेस 250 डिग्री से ऊपर की गर्मी नहीं मांगती। यानी ये सेक्टर पूरी तरह फॉसिल फ्यूल से बाहर निकल सकता है। बस कंपनियों को हिम्मत दिखानी होगी।”

मज़दूरों के लिए ‘हॉटस्पॉट’

इस रिपोर्ट ने एक और खतरनाक सच्चाई सामने रखी है। कारखानों के अंदर बढ़ती गर्मी और नमी का डेटा कोई ब्रांड साझा नहीं करता। इसका मतलब है कि मज़दूर, जो पहले से पसीने और गर्म भट्टियों से जूझ रहे हैं, उन्हें न तो सुरक्षा मिल रही है और न ही उनकी हालत पर नज़र रखी जा रही है। रिपोर्ट कहती है-अगर ये कंपनियाँ डेटा सार्वजनिक करें तो यूनियन्स मज़दूरों के हक़ की लड़ाई और मज़बूती से लड़ सकती हैं, और ब्रांड्स को भी अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होगा।

नामचीन लेकिन ज़ीरो पर

200 में से औसतन ब्रांड्स का स्कोर सिर्फ 14% रहा। सोचो, Forever21, Reebok, Urban Outfitters, Fashion Nova जैसे बड़े नाम सीधे ज़ीरो पर आ गए। वहीं H&M (71%) और Puma (51%) जैसे कुछ ब्रांड्स थोड़े बेहतर दिखे।

सिर्फ अकाउंटिंग, अकाउंटेबिलिटी नहीं

रिपोर्ट ने साफ़ कहा है कि ये कंपनियाँ सिर्फ काग़ज़ पर खेल खेल रही हैं। कई ब्रांड्स Renewable Energy Credits दिखाकर कहते हैं कि वे ग्रीन हैं, जबकि असलियत ये है कि उनकी फैक्ट्रियों में अब भी कोयला और गैस जल रही है। असली जलवायु एक्शन का मतलब है-सप्लाई चेन को हर घंटे, रियल टाइम में नवीकरणीय ऊर्जा से चलाना।

क्लीन हीट, कूल काम

रिपोर्ट ने एक नया ढांचा सुझाया है-“Clean Heat for Cool Work”। मतलब फैक्ट्रियों की भट्टियाँ इलेक्ट्रिक हो जाएँ, तो न सिर्फ ग्रीनहाउस गैसें कम होंगी, बल्कि फैक्ट्री के अंदर काम करने वाले मज़दूर भी थोड़ी राहत महसूस करेंगे। कम धुआँ, कम ज़हरीली हवा और गर्मी से थोड़ी सुरक्षा।

सीधी बात
फैशन ब्रांड्स नए डिज़ाइन और नए ट्रेंड्स बेचने में माहिर हैं, लेकिन उनके कारखाने अब भी विक्टोरियन जमाने की तरह कोयला और लकड़ी जलाकर चलते हैं। ये कंपनियाँ अगर अब भी नहीं बदलीं, तो ‘सस्टेनेबल फैशन’ सिर्फ एक झूठा नारा बनकर रह जाएगा।

कहानी का संदेश साफ़ है: हमारी अलमारियों में लटके कपड़े तब तक सच में “कूल” नहीं हो सकते, जब तक उन्हें बनाने वाली भट्टियाँ “क्लीन” न हों। रिपोर्ट: निशांत सक्सेना।
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