एक जवान जो 7 साल तक बॉर्डर पर तैनात रहा। पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध लड़ा, लेकिन सरकार ने उसकी पेंशन नहीं दी बल्कि उसकी विधवा पत्नी के खिलाफ 57 साल तक कोर्ट में लड़ाई लड़ी। 57 साल बाद कोर्ट ने कहा कि, आपको पेंशन का लाभ मिलना चाहिए। जब फैसला आया तब इंडियन आर्मी का जवान जिंदा नहीं है और उसकी पत्नी भी अपना पूरा जीवन संघर्ष में बिता चुकी है। सवाल तो बनता है कि क्या इसको न्याय कहते हैं?
पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने वाले लांस नायक उमरावत सिंह की कहानी
उमरावत सिंह को दिनांक 12 सितंबर 1961 को लांस नायक के पद पर इंडियन आर्मी में भर्ती किया गया था। 1965 में जब पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो उमरावत सिंह उन्हें कई पाकिस्तानी सैनिक मारे। उत्कृष्ट सेवा के लिए उमरावत सिंह को समर सेवा स्टार-65 अवार्ड भी दिया गया। बॉर्डर पर लंबे समय तक पोस्टिंग के कारण लगातार गंभीर मानसिक तनाव बना रहा। जिसके कारण उमरावत सिंह, स्किजोफ्रेनिक रिएक्शन का शिकार हो गया। 17 दिसंबर 1968 को सात साल और तीन महीने की सेवा के बाद उन्हें चिकित्सीय आधार पर सेना से बाहर कर दिया गया। उसने अपने जीवन यापन के लिए अक्षमता पेंशन की मांग की परंतु उसकी मांग को खारिज कर दिया गया था। बीमारी की हालत में उमरावत सिंह अपने भरण पोषण के लिए, 1972 में डिफेंस सिक्योरिटी कॉर्म्स (DSC) में शामिल हुए, लेकिन कुछ महीनों के भीतर ही उन्हें वहां से भी डिस्चार्ज कर दिया गया। 31 जनवरी 2011 को उनका निधन हो गया।
सैनिक की विधवा का सरकार ने विरोध किया
अब उनकी विधवा पत्नी के सामने जीवन यापन का प्रश्न था। चंद्र पती ने 2018 में सशस्त्र बल न्यायाधिकरण से निवेदन किया और अपने पति के लिए 1968 से अवैध/अक्षमता पेंशन और फरवरी 2011 से पारिवारिक पेंशन के बकाया राशि की मांग की। केंद्र सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध लड़ने वाले, और बॉर्डर पर तनाव के कारण बीमार होकर मर जाने वाले सैनिक की विधवा के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाई बल्कि उसके दावे का विरोध करते हुए तर्क दिया कि उमरावत सिंह ने सेना के पेंशन नियमावली, 1961 के नियम 132 के तहत आवश्यक 15 साल की योग्यता सेवा पूरी नहीं की थी।
सरकार मुकर गई और रिकॉर्ड भी नष्ट कर दिए
यह भी दावा किया गया कि उनकी अक्षमता को "न तो सैन्य सेवा से संबंधित और न ही इसके कारण बढ़ा हुआ" माना गया था और उनकी अक्षमता 20% से कम आंकी गई थी, जिसके कारण वे अक्षमता पेंशन के लिए अयोग्य थे। अधिकारियों ने यह भी कहा कि संबंधित रिकॉर्ड वैधानिक अवधि के बाद नष्ट कर दिए गए थे।
लेकिन चंद्रपति भले ही वृद्धि और लाचार थी लेकिन एक योद्धा की पत्नी थी। उसने न्याय के लिए सरकार के खिलाफ 57 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी। सभी पक्षों की सुनवाई के बाद, न्यायाधिकरण ने फैसला सुनाया कि उमरावत सिंह 18 दिसंबर 1968 से अपनी मृत्यु (31 जनवरी 2011) तक अक्षमता की पेंशन के हकदार थे। परिणामस्वरूप, उनकी विधवा 1 फरवरी 2011 से साधारण पारिवारिक पेंशन की हकदार हैं। न्यायाधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट के 2016 के बलवीर सिंह बनाम भारत सरकार मामले के फैसले का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि जब वैधानिक अधिकार मौजूद हो, तो देरी से मुकदमेबाजी के कारण पेंशन अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता।
देर से मिला न्याय किस काम का?
सवाल तो किया ही जाना चाहिए कि, एक सैनिक की विधवा को 57 साल तक कानूनी लड़ाई क्यों लड़नी पड़ी। सिस्टम इतना खराब क्यों है। न्याय मिलने में इतनी देरी क्यों होती है। देश की सेवा करने वाले सैनिक के परिवार के प्रति सरकार विरोध का भाव क्यों रखती है। यदि सिस्टम को ठीक किया जाए तो न्यायालय की चौखट पर जाने से पहले ही मामले का निपटारा किया जा सकता था। अब जबकि सैनिक की विधवा को सारे पैसे मिलेंगे तो वह उसके किस काम के होंगे।