कोर्ट में आरोपी के चरित्र पर कब बहस की जा सकती है और कब नहीं- Law of evidence,1872

किसी भी अपराध के विचारण की शुरूआत अभियोजन पक्ष अर्थात पीड़ित व्यक्ति के वकील की दलील द्वारा की जाती है। क्या पीड़ित व्यक्ति या उसका कोई वकील अरोपी के पूर्व (पहले के) चरित्र एवं कृत्य के बारे में न्यायालय को कोई साक्ष्य दे सकते हैं जो उसे दोषसिद्धि के आधार बन सके एवं न्यायालय ऐसे साक्ष्य को उचित मानेगा या नहीं जानते हैं इसका जबाब।

साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 54 की परिभाषा:-

उपर्युक्त धारा दाण्डिक मामलों में यह अभिनिर्धारित करती है कि कोई भी पीड़ित व्यक्ति या उसका वकील किसी आरोपी व्यक्ति के पूर्व या वर्तमान के चरित्र या आचारण पर कोई साक्ष्य तब तक नही देगा जब तक कि आरोपी स्वयं की और से अपने चाल-चलन (चरित्र) को अच्छा नहीं बताता है। 

अर्थात अभियोजन पक्ष का वकील या पीड़ित तब उसके चाल-चलन के साक्ष्य को गलत साबित करेगा, जब अरोपी स्वंय अपने गलत चाल-चलन का व्यक्ति नहीं होने का साक्ष्य न्यायालय को देता है।

उधानुसार:- रमेश किसी को बहुत बुरी तरह से मरता है एवं उस पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 325 के अंतर्गत आरोप लगाया जाता है। तब आरोपी रमेश या उसका वकील यह न्यायालय में यह बोलता है उसका स्वभाव या आचरण ऐसा नहीं है। वह किसी पर हाथ नहीं उठा सकता है। यह गलत आरोप है। तब पीड़ित व्यक्ति अपने साक्षियों को बुलवाकर रमेश के चाल-चलन को ग़लत साबित करने के साक्ष्य देगा। :- लेखक बी. आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665 | (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) इसी प्रकार की कानूनी जानकारियां पढ़िए, यदि आपके पास भी हैं कोई मजेदार एवं आमजनों के लिए उपयोगी जानकारी तो कृपया हमें ईमेल करें। editorbhopalsamachar@gmail.com

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