सवालों के घेरे में है भारत के बारे में अमेरिकी रिपोर्ट - Pratidin

अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद उम्मीद थी कि सरकार और उनके कथित थिंट टैंक भारत के लोकतंत्र, प्रेस की आजादी, इंटरनेट पर रोक व कश्मीर जैसे मुद्दों पर भारत को घेर सकते हैं। दुनिया में कथित रूप से लोकतंत्र की निगहबानी करने वाले अमेरिकी एनजीओ ‘फ्रीडम हाउस’ ने ताजा रिपोर्ट में यह दलील दी है कि भारत में नागरिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है, जिसे उसने आंशिक बताया है। वैसे यूं तो पश्चिमी जगत, खासकर अमेरिका दुनिया को लोकतंत्र की परिभाषा सिखाने के अपने मानक निर्धारित करता है। जिसे उसके स्वतंत्र देशों पर दबाव बनाने के तौर-तरीके के रूप में देखा जाता है।

रिपोर्ट में ऐसी धारणा है कि भारत के नागरिको के एक वर्ग का मानना है कि वे पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं।इस बात के कई अर्थ और अपेक्षित और अनपेक्षित मंसूबे हो सकते हैं | हालांकि, रिपोर्ट में अन्य देशों में भी लोकतंत्रों की स्थिति को चिंताजनक बताया गया है। इसके बावजूद एक नागरिक के तौर पर हमें यह बात परेशान करने वाली जरूर है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में नागरिक स्वतंत्रता को आंशिक बताया जा रहा है। हालांकि, खुद अमेरिका की पिछली सरकार में जिस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ायी गईं, उसका जिक्र अमेरिकी थिंक टैंक नहीं करते।

ट्रंप शासन में शरणार्थियों के साथ अमानवीय व्‍यवहार, कुछ मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक, रंगभेद के संघर्ष तथा मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाया जाना किस लोकतांत्रिक मर्यादा के दायरे में आते हैं? अपने साम्राज्यवाद के विस्तार के लिये किस तरह दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारों को अपदस्थ करने का खेल चला, उसकी पूरी दुनिया गवाह है।

यही वजह है कि सत्तारूढ़ दल ने अमेरिकी थिंक टैंक की रिपोर्ट को वैचारिक साम्राज्यवाद का नमूना बताया। बहरहाल, देश में सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में इस रिपोर्ट की अपनी सुविधा से अलग-अलग व्याख्या की जा रही है। इसको लेकर वैचारिक विभाजन साफ नजर आ रहा है। बहरहाल, एक नागरिक के तौर पर हमें भी मंथन करना चाहिए कि क्या वाकई भारतीय लोकतंत्र में एक नागरिक के रूप में हमारी आजादी का अतिक्रमण हुआ है। साथ ही रिपोर्ट में दी गई दलील को भारतीय परिस्थितियों के नजरिये से भी देखने की जरूरत है।

रिपोर्ट को जिन बिंदुओं के आधार पर बनाया गया है उनके अन्य पहलुओं पर विचार करना चाहिए। कहा गया कि कोरोना संकट में देश में बेहद सख्त लॉकडाउन लगाया गया, जिससे लाखों श्रमिकों को मुश्किल हालातों से गुजरना पड़ा। इस दलील का तार्किक आधार नजर नहीं आता क्योंकि दुनिया के तमाम देशों में सख्त लॉकडाउन को कोरोना से निपटने का कारगर माध्यम माना गया। लॉकडाउन से जुड़ी लापरवाहियों की बड़ी कीमत अमेरिका ने चुकायी है, जहां अब तक तमाम आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के बावजूद पांच लाख लोग कोरोना संक्रमण से मौत के मुंह में समा चुके हैं। ऐसे में सख्त लॉकडाउन और श्रमिकों के पलायन के मुद्दे को लेकर यह नहीं कहा जा सकता कि देश में लोकतांत्रिक आजादी कम हुई है।

रिपोर्ट का एक बड़ा मुद्दा इंटरनेट पर रोक लगाना है जो अमेरिकी कंपनियों के कारोबार को प्रभावित करता है। हकीकत में कश्मीर में परिस्थितियां और पाक के हस्तक्षेप के चलते सरकार ने इंटरनेट नियंत्रण को सरकार ने अंतिम हथियार माना। वैसे भी स्थितियां सामान्य होने पर वहां फोर-जी सेवा बहाल कर हो गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में प्रतिरोध करने वालों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज करने का मुद्दा भी उठाया गया है। 

सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कह चुका है कि हिंसा न फैलाने वाले लोगों के खिलाफ राजद्रोह के मामले न दर्ज किये जायें। इसके अलावा रिपोर्ट में कोरोना काल में अल्पसंख्यकों से भेदभावपूर्ण व्यवहार, सूचना माध्यमों के खिलाफ सख्ती, लव जिहाद व सीएए के दौरान हिंसा के मुद्दों को आधार बनाया गया है। एक नागरिक के तौर पर भी हमारे लिये मंथन का समय है कि क्या हम अपनी स्वतंत्रता पर आंच महसूस करते हैं। रिपोर्ट को सिरे से खारिज करने के बजाय इसका लोकतांत्रिक आधार पर मूल्यांकन करने की जरूरत है। साथ ही व्यवस्था का न्यायपूर्ण बने रहना प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये अपरिहार्य शर्त भी है। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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