हम कहाँ लौट रहे हैं ? अब किसानी और किसान जाति और खाप का समर्थन लेकर क्या करने जा रही है और इसका अंजाम समाज के मौजूदा ढांचे पर क्या होगा ? ऐसे में, सवाल यह पूछा जाने लगा है कि किसान आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने में क्या इन पंचायतों की भी भूमिका होगी? चूंकि खापों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है उसके निर्णय उन पैमानों के अनूकुल नहीं होते जो समाज में सर्वमान्य होते है |वैसे अभी यह लग रहा है केंद्र सरकार से बातचीत में खाप के नुमाइंदे शामिल नहीं होंगे| ऐसा होना ही श्रेयस्कर होगा ।
वार्ता की मेज पर वही संगठनरहे तो बेहतर , जो अब तक केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों से बात करते रहे हैं। खाप पंचायत सिर्फ एक रास्ता बना सकती है और उसे यह भूमिका स्वीकार करनी चाहिए। खाप पंचायतें किसान नेताओं से जिद व अहं न पालने और वार्ता में ‘एक हाथ ले, दूसरे हाथ दे’ की नीति अपनाने को समझा सकती हैं। हर समस्या का समाधान देर-सबेर निकलता है, इसलिए इस मसले का भी निकलेगा ही, लेकिन इस बीच सामाजिक ताना-बाना, राष्ट्रीय छवि और आपसी सद्भाव कायम रखना कहीं ज्यादा जरूरी है।
इसके लिए खापों के इतिहास को जानना होगा |इतिहास कहता है जाटों की खाप पंचायतें एक सामाजिक ग्राम्य गणतंत्र रही हैं। उत्तर मुगल काल में जब अफगान आक्रांता थोडे़-थोड़े अंतराल पर सिंध पार करके पंजाब को रौंदते हुए सशस्त्र बलों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ते थे, तब अपनी स्त्रियों, बच्चों और संपत्ति की रक्षा के लिए जाटों ने समूह बनाने शुरू किए थे। प्रारंभ में ये समूह गोत्र पर आधारित थे। जाटों में गोत्र की व्यवस्था उतनी ही पुरानी है, जितनी जाति। अपना डीएनए खास बनाए रखने के लिए जाट अपने बच्चों के शादी-ब्याह ऐसे दूसरे गोत्रों में करते हैं, जिनसे उनकी मां और पिता के गोत्र न टकराते हों। इस व्यवस्था से उनका सामाजिक विस्तार भी होता गया और समानता व एकता की भावना भी बलवती होती गई।
बाद में गोत्र विशेष के छोटे-मोटे विवादों का निपटारा इनकी पंचायतों में होने लगा। खाप का ढांचा पिरामिडीय आकार का रखा गया है। नजदीकी भाई अपना कुटुंब बनाते हैं, कुटुंब मिलकर थोक (पट्टी) निर्मित करते हैं, थोक मिलकर थाम्बा गठित करते हैं, और अंत में उस गोत्र के थाम्बे मिलकर खाप का गठन करते हैं। सभी खापें मिलकर एक सर्वखाप का गठन करती हैं। कंडेला में यही सर्वखाप पंचायत हुई थी। वैसे, सबसे बड़ी सर्वखाप पंचायत १९३६ में बालियान (जिसके प्रमुख नरेश टिकैत हैं) खाप के सोरम गांव में हुई थी। उसमें किसानों ने गांधीजी के आह्वान पर देश की आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने का फैसला किया था। एक बात समझने की जरूरत है। जाटों की नजर में जमीन बहुत ही मूल्यवान होती है। एक जाट कितने भी महंगे बंगले में रहता हो, एलीट क्लब का सदस्य हो, करोड़ों के पैकेज वाली सैलरी कमाता है, पर दूसरों से बातचीत में अपने पास गांव में पैतृक जमीन होने की बात पर बड़ा ही गौरवान्वित महसूस करता है।
खाप ग्रामीणों का संगठन होता है, इसलिए उनके पास किसान नेता व राजनेता अपना मनोबल, संख्या बल और शक्ति प्रदर्शन हासिल करने जाते हैं। ग्रामीण किसान भावुक और भोला-भाला होता है। वह आसानी से भावनाओं में बह जाता है। इसका फायदा भी आंदोलन के नेता उठाने से नहीं चूकते। राजनेता खापों के किसी काम नहीं आते, लेकिन उनका समर्थन जरूर अपने आंदोलन में जान फूंकने के लिए लेते रहते हैं।
विचार करना होगा कि खापों के किसान आंदोलन में शामिल हो जाने के बाद आंदोलन उग्र तो नहीं होगा? खापों की सक्रियता से यह आंदोलन कुछ दिन अथवा माह लंबा जरूर खिंच जाएगा।
लाल किले की शर्मनाक घटना ने ग्रामीणों (खापों के मुख्य स्रोत) को भी अंदर तक झकझोर दिया है । हॉलीवुड के सितारों और कनाडा की रैलियों की कवरेज इन ग्रामीणों पर भी सीधा असर डाल रही हैं। जिन किसान परिवारों का एक भी सदस्य सीमा की रक्षा करने वाले सैनिक के रूप में अपनी सेवा दे रहा है, पुलिस में रहकर कानून-व्यवस्था संभालने में जुटा है, वह कतई नहीं चाहेगा कि किसान आंदोलन अपने मार्ग से भटककर हिंसक हो जाए।
जिम्मेदारी सरकार की भी बनती है। वह वार्ता के सभी माध्यम खुले रखे। हमारी कृषि शिक्षण संस्थाएं विश्व-स्तरीय हैं। यहां अध्ययन कर चुके छात्र और अध्ययन कराने वाली फैकल्टी दुनिया भर में पढ़ा रही हैं या शोध-कार्यों में जुटी हुई हैं। इन्हें शामिल करके किसानों के हित के मामले उनको समझाए जा सकते हैं। किसानों के दिल में बैठ गई या बिठाई गई ये बातें निकालनी पड़ेंगी कि बड़े कॉरपोरेट घरानों के हित साधने के लिए ये कानून बने हैं। किसानों के हित के प्रावधान उन्हें समझाने चाहिए। बिजली, खाद व पानी की किल्लत और खाद्य पदार्थों का बाजार न मिलने जैसी समस्याएं भी राज्य सरकारों को साथ लेकर सुलझाने की जरूरत है। कृषि राज्य का विषय है। इसलिए समस्या के समाधान की जिम्मेदारी अकेले केंद्र की नहीं है। किसान आंदोलन एक खास तबके या जाति द्वारा चलाया जा रहा है, यह भ्रम समाज न फैले और इसकी जवाबदेही आंदोलन के नेताओं की है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।