ये बजट ठीक नहीं है सरकार - Pratidin

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बड़ी अजीब बात है भाजपा के अपने निष्ठावान कार्यकर्ता भी सोशल मीडिया पर वर्ष २०२१–२२ के बजट के बात खुश नहीं है | पहले ये ही कार्यकर्ता सिर्फ समर्थन के लिए मुंह खोलते थे | अब बजट पर भोपाल के एक निष्ठावान कार्यकर्ता ने सोशल मीडिया पर टिप्पणी लिखी है इस बार यह बजट “मेरे लिए गुलामी फिल्म के इस गाने जैसा है - *जिहाल-ए-मस्ती मकुन-ब-रन्जिश, बहार -ए-हिज्र बेचारा दिल है *कभी समझ में नहीं आया। निश्चित ही यह टिप्पणी करने वाले कार्यकर्ता सज्जन प्रकृति के हैं उनके अन्य प्रदेशों में उनके साथियों की इस विषय पर आई टिप्पणी तो और गंभीर हैं |

आज देश मे देश की तमाम समस्याओं के लिए १९९१ के सुधारों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए। दूसरी तरफ भारत का अभिशाप यह है कि सुधारों के पल बहुत कम रहे हैं। यही वजह है कि जब भी कोई सुधार दिखता है तो हम उसे स्वप्निल बजट कहने लगते हैं।१९९७-९८ में वामदलों के समर्थन से चल रही देवेगौड़ा सरकार में पी चिदंबरम वित्त मंत्रालय संभाल रहे थे। तब इन्द्रजीत गुप्ता एवं चतुरानन मिश्रा जैसे वरिष्ठ वाम नेता गृह और कृषि जैसे अहम मंत्रालय संभाल रहे थे।

वाजपेयी सरकार के काल में यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने भी ३ बजट पेश किए थे। तमाम गतिरोधों और सीमा शुल्क एवं कर कटौतियों के बावजूद वह एक बढिय़ा दौर था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने निजीकरण की रफ्तार रोक दी थी। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के समय आर्थिक सुधारों का सिलसिला डेढ़ में ही रुक गया, चिदंबरम ने एक साल ही ऐसा किया था। २००४ में के बाद बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की नई सरकार ने समावेशी विकास के नए समीकरण को अपना लिया। उस चुनावी नतीजे का यही अर्थ निकाला गया था कि भारत के गरीबों ने आर्थिक प्रगति पर राजग और उसकी नीतियों को नकारते हुए कांग्रेस को मत दिया है। जबकि तब कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच सिर्फ ७ सीटों का अंतर था।

इसके विपरीत संप्रग सरकार का दूसरा कार्यकाल आने तक भारत में मौजूद हरेक समस्या के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाने लगा और गरीबों की दुर्दशा के लिए भी वही दोषी मानी गई। उस सरकार ने शिक्षा, खाद्य एवं रोजगार के अधिकार देने वाले कानून भी पारित किए पर संप्रग सरकार नहीं चली| ये सरकारें हमेशा कहती थीं कि उनके पास बहुमत नहीं है। नरेंद्र मोदी को मतदाताओं ने दो बार बहुमत देकर साबित किया की जनता के निर्णय गलत नही है । राजग सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को लोकसभा में पारित कराते हुए पहला बड़ा कदम उठाया था। फिर राजग सरकार पर 'सूट बूट की सरकार' च का आरोप लगा और सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए। नोटबंदी ने हालात और सरकार की प्रतिष्ठा को और भी बिगाड़ दिया |सही बात तो यह लोकतंत्र में अर्थव्यवस्था का प्रबंधन एवं दिशा राजनीति ही तय करती है।

देश में प्रतिपक्ष की आलोचना हमेशा ध्यान से सुनने की परिपाटी समाप्त होती दिख रही है |जब अपने कार्यकर्ता फुसफुसाने लगे तो यह और भी गंभीर बात हो जाती है | केंद और राज्य में एक बड़े दल का राज और उससे पैदा अहं के कारण राष्ट्रीय हित और अहित में भेद समाप्ति का जो देश में वातावरण दिख रहा है,कुछ लोग जिन्हें दल निष्ठावान कार्यकर्ता की संज्ञा देते वे भी खुश नहीं है | प्रजातंत्र में तो गैरों की सुनी जाती है तो अपनों की फुसफुसाहट भी गौर से सुनिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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