अगले कुछ दिन और अमेरिका - Pratidin

अमेरिकी संसद भवन ‘कैपिटल हिल बिल्डिंग’ की घटना अमेरिका के साथ विश्व को भी काफी कुछ संकेत दे रही है। अब तक सामने आयर घटनाक्रम के मुताबिक, रिपब्लिकन समर्थकों ने संसद भवन पर कब्जा करने की असफल कोशिश की, जिसमें उन्होंने हिंसा का भी सहारा लिया। लोकतंत्र के मंदिर पर इस हिंसक हमले का दुष्प्रभाव तो बाद के दिनों में पता चलेगा, लेकिन रिपब्लिकन समर्थकों की इस आक्रामकता के कई अर्थ निकल सकते है और निकाले जा सकते हैं। जिन देशो में द्विसदनीय संसदीय व्यवस्था है, उनके लिए चेतावनी भी बन सकती है |

पहली और बड़ा कारण रिपब्लिकन का सीनेट, यानी ऊपरी सदन में भी बहुमत खो देना। सीनेट में 100 सदस्य होते हैं, और इसमें रिपब्लिकन सांसद डेमोक्रेट्स पर भारी थे। जॉर्जिया की दो सीटों को छोड़ दें, तो उसके 50 सदस्य सीनेट में थे। मगर हालिया चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी ने जॉर्जिया में जीत हासिल कर ली है। इसका मतलब है कि अब इस सीनेट में दोनों पार्टियों के बराबर-बराबर सांसद हो गए हैं। ऐसे में, हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स (निचला सदन) से पारित विधेयक आसानी से सीनेट से भी पास हो सकते हैं, क्योंकि मत-विभाजन की स्थिति में उप-राष्ट्रपति का शपथ लेने जा रहीं कमला हैरिस का मत निर्णायक होगा, जो डेमोके्रट के पक्ष में ही जाएगा। 

इन दिनों अमेरिका में सामाजिक विद्वेष काफी ज्यादा बढ़ गया है। श्वेत नस्ल के नागरिक अपना अलग आंदोलन चलाते हैं, तो अश्वेत अलग तरीके से अपनी आवाज बुलंद करते हैं। यहां नस्लीय भेदभाव की समस्या बेशक पहले से रही है, लेकिन ट्रंप के शासनकाल में यह ज्यादा गहरी हुई है। इसका असर राजनीति में भी दिख रहा है और तमाम समुदाय अपने-अपने प्रतिनिधित्व की मांग करने लगे हैं। चूंकि दो साल बाद फिर से कुछ सीटों के लिए सीनेट के चुनाव होंगे, इसलिए रिपब्लिकन पार्टी सदन में फिर से बहुमत के लिए जोर आजमाइश करना चाहेगी। यह पार्टी चाहेगी कि चुनाव में पूरे दम-खम से मुकाबला किया जाए, ताकि सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी को ‘मनमर्जी’ करने से रोका जा सके। लिहाजा संसद भवन पर हमला अपने समर्थकों में जोश भरने की मंशा से किया गया कृत्य हो सकता है। 

हो सकता है डेमोक्रेट उन नीतियों को बदलने की सोचें, जो ट्रंप शासनकाल में बनाई गई हैं। वे डेमोक्रेट को यह संदेश देना चाहते होंगे कि ऐसी किसी कवायद में उसे हिंसक विरोध तक झेलना पड़ सकता है, और अगर अगले सीनेट चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी ने बाजी मार ली, तो किसी भी बिल को पारित कराना डेमोक्रेट के लिए काफी मुश्किल हो जाएगा। 

कांग्रेस में मुद्दों के आधार पर दोनों पार्टियां एक-दूसरे का समर्थन करती रही हैं। कभी-कभी तो आलाकमान के खिलाफ भी ऐसा किया जाता है। रिपब्लिकन नेतृत्व को यह डर लग रहा हो कि कांग्रेस के उसके प्रतिनिधि यदि डेमोक्रेट का समर्थन करने लगेंगे, तो वह पार्टी पर अपनी पकड़ खो सकते हैं। हो सकता है इसीलिए जहां दो साल बाद चुनाव होने वाले हैं,रिपब्लिकन नेतृत्व स्थानीय इकाइयों की दखलंदाजी के बिना अपने प्रतिनिधियों का चयन करना चाहता होगा। 

आज का बड़ा सवाल यह है कि इस हिंसक घटनाक्रम का बाइडन प्रशासन पर क्या असर पड़ेगा? इसका ठीक-ठीक पता तो जनवरी के दूसरे पखवाडे़ में चलेगा, जब जो बाइडन अमेरिका के नए राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगे। मगर ऐसा लगता है कि अमेरिका की विदेश नीति में हाल-फिलहाल शायद ही कोई फेरबदल हो। मुमकिन है कि बाइडन उन्हीं नीतियों का पोषण करेंगे, जो रिपब्लिकन शासनकाल में बनाई गई हैं। घरेलू मोर्चे पर कुछ बदलाव देखे जा सकते हैं। मगर यहां भी जो नीतियां ‘ऑटोमेटिक मोड’ में हैं, यानी कांग्रेस से पास हो चुकी हैं और जिनको तय वक्त में लागू किया जाना अनिवार्य है, उनकी राह में कोई बाधा शायद ही डाली जाएगी।, बाइडन प्रशासन इस दिशा में इसलिए भी आगे बढ़ना चाहेगा, क्योंकि कैपिटल हिल बिल्डिंग पर हमले की एक बड़ी वजह आम लोगों में बढ़ती नस्लीय तनातनी भी है। मगर नई सरकार की ताजपोशी में अब भी कुछ दिनों का वक्त बाकी है। इस बीच क्या अमेरिका यूं ही बगावत की आग में जलता रहेगा? इसका जवाब रिपब्लिकन नेतृत्व और उनके पुराने राष्ट्रपतियों के रुख से मिल सकेगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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