महंगाई डायन ! खाय जात है - Pratidin

आम आदमी त्रस्त है महंगाई उसका सारा गणित बिगाड़े दे रही है | आम आदमी के लिए जीवनयापन अब मुश्किल होता जा रहा है | यह जद्दोजहद कब तक चलेगी इस बारे में कोई कुछ नहीं कर सकता | ताजा आंकडे़ बताते हैं कि खुदरा मुद्रास्फीति दर नवंबर में पिछले तीन महीने में सबसे कम ६.९३ प्रतिशत थी, जबकि अक्तूबर में यह छह साल की सबसे ज्यादा ७.६१ प्रतिशत हो गई थी। इस लिहाज से उपभोक्ता वस्तुओं के दाम में कमी आनी चाहिए थी। मगर ऐसा हुआ नहीं, दाल-सब्जियों की कीमतें आज भी ऊंची हैं। महंगाई की इस टीस को रसोई गैस की कीमत और गहरा कर रही है, जिसमें पिछले एक महीने में दो बार बढ़ोतरी हो चुकी है। पेट्रोल-डीजल के भाव भी चढ़ते रहे हैं, जिसके कारण लोग खुद को चौतरफा मुश्किलों में घिरा पा रहे हैं।

महंगाई बढ़ने का एक बड़ा कारण तो नीतिगत मोर्चे पर सरकार की विफलता है। जानकारों की राय में सरकार ‘मैक्रोइकोनॉमिक्स एडजस्टमेंट’ में सफल नहीं हो पा रही है। ‘मैक्रोइकोनॉमिक्स एडजस्टमेंट’ का अर्थ है, देश की अर्थव्यवस्था में बन आए असंतुलन को दूर करना। यह असंतुलन एक या अधिक क्षेत्रों में आपूर्ति व मांग में महत्वपूर्ण अंतर पैदा होने या अन्य उल्लेखनीय के कारण ही पैदा होता है। इसे कोई निजी कंपनी संतुलित नहीं कर सकती। यह सरकार की ही जिम्मेदारी है। यह असंतुलन आमतौर पर अर्थव्यवस्था में संसाधनों की आपूर्ति से दूर होता है, जिसके लिए संसाधन जुटाना जरूरी है। इसके लिए सरकार अतिरिक्त कर लगाकर या अन्य जरूरी उपाय करके अपना राजकोष बढ़ाती है और फिर उसका इस्तेमाल करती है। बेशक, कोरोना संक्रमण काल में लोगों की जान बचाने के लिए राजकोष पर बोझ बहुत बढ़ गया है, लेकिन जब जनता कड़वे घूंट पी रही है, तो फिर सरकार क्यों खुद पर इसे लागू करने से बच रही है? उसे भी अपने खर्च को सीमित करके संसाधन में वृद्धि करनी चाहिए।

वर्तमान में नए कृषि कानूनों के कारण  भी महंगाई से  रस्साकशी जारी  है। क्योंकि साग-सब्जियों व खाद्यान्न के उत्पादक किसान ही हैं। किसान  नए कानूनों का समर्थन नहीं कर रहे। नए कानून  फायदेमंद हैं,ऐसा सरकार और समाज के एक तबके का कहना है । पिछले पांच-सात वर्षों से इस विषय पर चर्चा हो भी रही थी, मगर इनको लागू करने का अभी सही वक्त नहीं था । देशव्यापी लॉकडाउन से हम थोड़े दिन पहले ही गुजरे हैं। इस कारण हमारे उत्पादन और परिवहन पहले से ही नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं। इसलिए अभी किसानों की नाराजगी मोल लेना उचित नहीं था। उत्पादों की बाजार तक आपूर्ति का बुनियादी आधार यही किसान हैं। उनके आंदोलन की वजह से फसल-उत्पादन और परिवहन पर असर पड़ रहा है, जिसके कारण शहरी बाजारों में जरूरत के हिसाब से सामान नहीं पहुंच रहे हैं।चरणबद्ध तरीके से अनलॉक किए जाने से भी बाजार प्रभावित हुआ है।

जहां तक पेट्रो उत्पादों और रसोई गैस की कीमतों की बात है, तो मुक्त बाजार होने की वजह से पेट्रो उत्पादों के भाव हमारे नियंत्रण में अमूमन नहीं हैं। ये खाड़ी के देश तय करते हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इनके दाम चढेंगे, तो देश में भी ये उपभोक्ताओं को बढ़ी हुई कीमतों पर मिलेंगे। फिर भी, रसोई गैस जैसे जरूरी उत्पादों की कीमतें कम होनी ही चाहिए। इन उत्पादों की कीमतों में संतुलन बनाने के लिए रसोई गैस के दाम कम और पेट्रोल के बढ़ा देने चाहिए। अगर ऐसा करना मुनासिब न हो, तो पेट्रोल-डीजल के दाम अभी कुछ हद तक सरकार नियंत्रित कर सकती है और अगले साल इनकी कीमतें बढ़ाकर असंतुलन दूर कर सकती है। इससे एक बड़ी आबादी इस वक्त राहत महसूस करेगी। 

यह एक सत्य है उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें पूरी तरह से जमीन पर नहीं आ सकतीं। इसके लिए तो कृषि कानूनों को लेकर फैसला करना उचित होगा। इस पर किसानों और सरकार में सहमति बननी चाहिए। खेत से लेकर मंडी तक अपने उत्पाद की लागत किसान ही उठाता है, इसलिए लॉकडाउन काल में उसे तमाम तरह की मुश्किलें पेश आईं। वह इन कठिनाइयों को देखकर भी नए कानूनों से घबरा रहा है। इसलिए सरकार इन कानूनों को लागू करने में जल्दबाजी न करे|

सरकार को अपने संसाधन बढ़ाने की तरफ भी ध्यान देना होगा। इसके लिए उसे अपनी शक्ति का पूरा इस्तेमाल करना चाहिए। बड़ी कंपनियों से मात्र अपील कर देने से भाव काबू में नहीं आएंगे। इस गुजारिश को कंपनियां खारिज तो नहीं करेंगी, पर वे वही करेंगी, जिनसे उन्हें मुनाफा होगा और उनके शेयरधारकों के हित सधेंगे। इसलिए केंद्र सरकार को ही ऐसी प्रभावशाली नीतियां बनानी होंगी कि कंपनियां नियंत्रण में रहें, ताकि ‘मैक्रोइकोनॉमिक्स एडजस्टमेंट’ हो सके। इसके बिना कीमतें काबू में नहीं आ सकतीं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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