इस दुष्काल की परिणति “न्यू नार्मल” के नाम से उभर रही है, पर देश में हाथरस और उसके बाद और साथ घटी उस जैसी घटनाओं के बाद बेटियों को यह “अब्नार्मल सलाह” है कि अब अपने साथ नेल पॉलिश की जगह कोई चाकू, बरछी या पिस्टल रखें, ताकि मौका आने पर गिद्धों को उड़ा सके और उनके होश ठिकाने ला सके। बापू क्षमा करना, आपके देश में आज आपके जन्मदिन के दिन यह “अब्नार्मल सलाह” दे रहा हूँ।
लगता है आज पूरा समाज गूंगा – बहरा हो चुका है। खाने-पीने के लिये मास्क हट सकता है तो चीखने के लिये भी हट सकता है। यह समय की मांग है सब दरिंदों के खिलाफ मुंह खोलें। हर युवा होती बेटी के बाप के पांवों तले आज ज़मीन नहीं है। घर के किसी काम या पढ़ाई के लिये निकली बेटियों के पीछे कामुक भेड़िये चलने लगते हैं। जब तक बेटी घर पहुंच न जाये तब तक चिंतामुक्त होकर नहीं जीया नहीं जा सकता।
कोरोना दुष्काल में बहुत-सी चीजें बदल गई हैं। कोरोना काल से पहले हम जो सामान्य जीवन जी रहे थे, जानलेवा कोरोना वायरस की वैक्सीन आने तक अब उस दौर में लौटना संभव नहीं दिख रहा है। अब साइबर दुनिया सभी के जीवन का अभिन्न बन गया है। यह अब ‘न्यू नॉर्मल’ है। और हाथरस जैसी घटनाओं को क्या कहना चाहेंगे ?
कोरोना के चलते दुनिया में बहुत कुछ बदल गया है, नहीं बदली है तो भेडियों की हरकतें और उनकी जात। दो गज की दूरी तथा मुंह पर मास्क पहनना मानव जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन गया है। कोरोना प्रोटॉकॉल के तहत इस तरह के बहुत से बदलाव हैं, जिनके साथ जीना ही अब न्यू नॉर्मल है। प्रचलन में आया यह ‘न्यू नॉर्मल’ शब्द पुराना हो सकता है, लेकिन उसके तहत परिभाषित मानव जीवनशैली व व्यवहार नये हैं। इसी जीवनशैली में यह दुनिया वर्चुअल दुनिया में बदल गई है। यह कल्पना लोक का संसार नहीं है, बस वर्चुअल दुनिया आभासी संसार है। कल्पना लोक में पहुंचकर तो मानव आनंदित होता है, लेकिन इस आभासी दुनिया में रह कर वह वास्तविकता से दूर जा रहा है। कोरोना के इस दुष्काल में जो बदलना था वो “हवस” नहीं बदली। इसके लिए कौन सा “लॉक डाउन” करना होगा, कौन बतायेगा ?
कोरोना दुष्काल के बाद दुनिया को पहले जैसी स्थिति में लौटना अभी संभव नहीं होगा। इसका मतलब साफ है कि अब सभी को ‘न्यू नॉर्मल’ में जीना होगा। इसलिए भारत में नीति आयोग ने जून के माह में कोविड-19 से बचने के लिए एक व्यवहार परिवर्तन अभियान ‘नेविगेट द न्यू नॉर्मल’ लांच कर दिया था। इसका उद्देश्य देश में एक उपयुक्त कोविड-19 सुरक्षित व्यवहार विकसित करना है। यानी, जब तक कोरोना की वैक्सीन विकसित नहीं हो जाती, तब तक लोग मास्क पहनना, हाथों की सफाई, सोशल डिस्टेंसिंग आदि को अपनी दिनचर्या के रूप में अपनाना शुरू कर दें। इसी आधार पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने महिला और बाल विकास मंत्रालय के साथ मिलकर ‘नैविगेटिंग द न्यू नॉर्मल’ अभियान शुरू किया।सरकार के उस कार्यक्रम के नाम की भी जरूरत है, जो हाथरस जैसे हादसों को रोके और गुजर जाने पर ऐसा कुछ करे कि समाज में सालों उसकी गूंज हो |
कोरोना काल में कई नये शब्द भी गढ़े गए हैं और कई शब्द प्रचलन में भी आए। उदाहरण के तौर पर कोविड-१९ शब्द भी इस महामारी के साथ सामने आया। इसके अलावा वर्चुअल, वेबीनार, क्वारंटीन, सोशल डिस्टेंसिंग जैसे ढेरों शब्द लागों की जुबान पर हैं। इसके अलावा कोरोना बेबीज जैसा शब्द भी प्रचलन में आया है। यह उन बच्चों के लिए प्रयोग हो रहा है जो इस महामारी के समय पैदा हुए या जो इस समय गर्भ में हैं। ऐसे में एक और नया शब्द उन भेडियों की जात के लिए भी गढ़ा जाना चाहिये , जो निर्भया कांड के जुल्मियों को हुई फांसी के बाद भी निर्भय है । ऐसे इंसानों की सूरतें जंगली हैवानों से कितनी मिलती-जुलती हैं। जो समाज में बहन-बेटी के लिये हवस के भूखे भेड़िये बन रहे हैं।
देश में बलात्कारियों ने फिर उत्पात मचाया है और दुष्कर्म के साथ-साथ वे पीड़िता की जीभ काटकर रीढ़ की हड्डी तोड़कर संदेश दे रहे है कि रेप के मुजरिमों को किसी का डर नहीं है। उनकी कुटिल चालें ज्यों की त्यों हैं। तो ऐसे में न्यू नार्मल होते समाज की बेटियों को “अब्नार्मल सलाह” है अब नेल पॉलिश की जगह कोई चाकू, बरछी या पिस्टल अपने पास रखो,जिससे तुम उन गिद्धों को उड़ा सको और उनके होश ठिकाने ला सको। जो इसके बाद चुप बैठे हैं,यह इस गन्दी हरकत को जवानी की भूल कहते आ रहे हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।