देश की कृषि नीति और चंद अप्रासंगिकता - Pratidin

यूँ तो भारत की गिनती कृषि प्रधान देशों में होती है। राजनीतिक दल घोषणा पत्रों में किसान और किसानी को शामिल करते हैं। फिर जिसकी भी सरकार बनती है वो किसानी और किसान के लिए कुछ भी करती है। जैसे वर्तमान केंद्र सरकार ने किया। आज देश भर में इसका विरोध हो रहा है। किसानों के इस विरोध का कारण समझने के लिए सबसे पहले देश की कृषि-व्यवस्था पर गौर करना आवश्यक है।

देश में जब मानसून अच्छा रहता है, तो खरीफ की बुआई खूब होती है। सरकारी नीतियां भी इनमें सहायक होती हैं, लेकिन चुनौती हमेशा से यह है कि कृषि उपज को किस तरह बढ़ाया जाए और इसे कैसे इतना मजबूत बनाया जाए कि अर्थव्यवस्था में होने वाली गिरावट की भरपाई इससे अधिकाधिक हो सके। सरकारों का फार्मूला समर्थन मूल्य नीति है, अतएव न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी जाती है। इस व्यवस्था का लाभ उत्तर-पश्चिम के किसानों को मिलता है, लेकिन शेष भारत के किसानों को इससे शायद ही कभी फायदा मिलता हो। सरकारी खरीद संबंधी मूल्य उनके लिए अब तक अप्रासंगिक रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारत का कृषि बाजार दुनिया का सबसे बड़ा तंत्र है, लेकिन इससे किसानों को कोई फायदा नहीं मिलता। यही बड़ा कारण है कि देश के कृषि उत्पादों का अधिकतर कारोबार मंडी के बाहर होता है, क्योंकि मंडी में सुविधाओं का अकाल है। इसलिए हमें सर्वप्रथम कृषि प्रसंस्करण के बुनियादी ढांचे (आपूर्ति शृंखला) और बाजार की व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करना चाहिए था, जिसमें सरकारेन अब तक सफल नहीं हो सकी हैं ।भारतीय अर्थव्यवस्था जब-जब मुश्किलों में फंसी है, कृषि क्षेत्र ने ही उसे खाद-पानी दिया है।

आज फिर ‘न्यू नॉर्मल’ की बातें की जा रही हैं, तब खेती-किसानी को भी इसी रूप में ढालने की जरूरत है। व्यापार और परिवहन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब कोविड-19 के कारण लॉकडाउन लगा, तो आवागमन ठप हो गया, और किसानों को जहां-तहां अपनी फसलों का भंडारण करना पड़ा है। रेलवे अब तक सुचारू रूप से अपनी सेवाएं शुरू नहीं कर सका है, देश के कई कृषि व्यापार में परिवहन के तौर पर रेलवे का ही प्रयोग किया जाता है। ऐसे किसानों की हालत इन महीनों में क्या हुई होगी? विचार का विषय है। बदली हुई स्थितियों के अनुरूप कृषि नीतियां बनानी थी,नहीं बनी । हम तो रेल को व्यापार का खेल बनाने पर उतारू हैं। 

इन बिलों के प्रबल विरोध का कारण ये आशंका है “छोटी जोत के किसानों को नुकसान होगा और पूरा फायदा बडे़ किसान और कारोबारियों के हिस्से में चला जाएगा।“ निश्चय ही किसान अपनी फसल को बेचने के लिए लंबा रास्ता तय करते हैं। छोटे गांवों के किसान बड़े गांव में जाते हैं और फिर वहां से उनकी उपज शहरों में पहुंचती है। कई राज्यों में दस लाख से भी अधिक किसान शहरों का रुख करते हैं। मगर बाजार का जो ढांचा अपने देश में है, उसमें उन्हें प्राथमिकता नहीं मिलती। नतीजा यह होता है कि खेती-किसानी में आमदनी की किसानों का हिस्सा कम होता जा रहा है। कहने को सरकारें तरह -तरह की सहायता और कर्ज-योजनाएं लाती हैं, लेकिन जब तक उन बुनियादी मुश्किलों को दूर नहीं कर लिया जायेगा जो किसान पहले से झेलते आ रहे हैं, तब तक इन योजनाओं का बहुत ज्यादा लाभ नहीं मिल सकता।साफ है, छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों की बुनियादी समस्याओं का समाधान पहले होना चाहिए, उसके बाद नीतियां बननी चाहिए।

हमारी हर रणनीति ऐसी होनी चाहिए कि छोटे, मध्यम और बडे़ गांव शहरों से सीधे जुड़ सकें। यह जुड़ाव सिर्फ सड़क, बाजार, बिजली आदि से नहीं बल्कि यह सामाजिक स्तर पर होता हुआ दिखना चाहिए। सरकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि शहरों में रहने वाले लोगों की आय बढ़े। बल्कि देश के हर नागरिक जिसमें पहले किसान की आमदनी किस तरह से बढे़, इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।

अभी तो इन बिलों का लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता फिलहाल स्पष्ट नहीं दिखता है। अपने देश में मंडी से इतर कृषि उपज की खरीद-फरोख्त के कई बाजार तो हैं। किसानों के पास खाद्य प्रसंस्करण, प्रथम चरण के बुनियादी ढांचे और इससे संबंधित सुविधाएं नहीं हैं।, इन सभी चुनौतियों पर गंभीर बहस की जरूरत है। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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