कांग्रेस : अपने को साबित करने की कोशिश में लगे / EDITORIAL by Rakesh Dubey

यह एक सर्वमान्य सत्य है कि लोकतंत्र की जीवन्तता के लिए जितनी जवाबदार और जवाब देह सरकार की जरूरत होती है तो उतना सशक्त विपक्ष भी आवश्यक है। किसी एक का अधिक मजबूत होना और किसी एक का जरूरत से ज्यादा कमजोर होना लोकतंत्र के स्वरूप के बदलने के संकेत होते हैं। भारत में ऐसा ही दृश्य बनता दिख रहा है, सरकार को प्रतिपक्ष को आत्मवलोकन की जरूरत है।

वैसे सत्तारूढ़ भाजपा के स्थान पर कोई और दल सता में होता तो उसका व्यवहार ऐसा ही होता इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते, पर यदि भाजपा प्रतिपक्ष में होती तो क्या उसका व्यवहार वर्तमान प्रतिपक्ष कांग्रेस सा होता ? आपका उत्तर कुछ भी हो सकता है आज कार्यशैली को लेकर भले ही दोनों में समानता दिखती है, परन्तु सन्गठन के स्तर पर अलग होने से उस प्रतिपक्ष का रूप कुछ अलग होता।

कहने को कांग्रेस भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल है। आज उसमे नेतृत्व संकट सुलझने के बजाय उलझता ज्यादा दिख रहा है। पिछले साल लोकसभा चुनाव में निस्तेज प्रदर्शन के बाद अध्यक्ष पद से राहुल गांधी का इस्तीफा और कांग्रेस का वापस सोनिया गांधी की शरण में जाना कोई चमत्कार नहीं दिखा सका। वैसे भी सबसे लम्बे समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने वाली सोनिया गाँधी का अंतरिम अध्यक्ष चुने जाने अर्थ यही था कि पद त्यागने की राहुल की हठ के मद्देनजर यह अंतरिम व्यवस्था है और कांग्रेस को जल्द नया अध्यक्ष मिल जायेगा। कांग्रेस अपनी इस नाकामी के लिए कोरोना महामारी के नाम के पीछे छिपा सकती है, लेकिन यह शुतुरमुर्गी रवैया है। जो कांग्रेस अपने इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका पर गर्व करती है, उसका ऐसा रवैया किसी  को पसंद नहीं आया।

देश में 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सशक्त विपक्ष तो कल्पना की चीज बनकर रह गया है। लगातार सिकुड़ते जनाधार वाली कांग्रेस की जगह अब लगभग पूरी तरह भाजपा ने ले ली है, तो कई राज्यों में तो क्षेत्रीय दल कांग्रेस से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में आ गये हैं। इसके बावजूद भी आज की परिस्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर और कुछ राज्यों में कांग्रेस के बिना सशक्त विपक्ष की भूमिका असंभव है। यह अलग बात है कि पिछली लोकसभा में 44 और वर्तमान लोकसभा में 52 सीटों पर सिमटने के कारण कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद राजनीति के कारण नहीं मिला  जबकि सदन में सबसे बड़ा दल वही है और भाजपा के बाद देश के सबसे ज्यादा राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें हैं।

ऐसे में कांग्रेस को खारिज कर देना न तो तर्कसंगत है और न ही लोकतंत्र के हित में। यहाँ सवाल यह है क्या खुद कांग्रेस को अपनी इस जिम्मेदारी-जवाबदेही का अहसास है? कटु सत्य यही है कि इस प्रश्न का उत्तर न में ही है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के हर फैसले का सोशल मीडिया और प्रेस कानफ्रेंस के जरिये विरोध करने के अलावा सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में कांग्रेस पिछले छह साल में नाकाम ही रही है।

आज कांग्रेस को सबसे पहले अपना घर दुरुस्त करना होगा। जो राजनीतिक दल साल भर में नया अध्यक्ष न चुन पाये और लंबे अंतराल के बाद मिली मध्य प्रदेश की सत्ता भी अंतर्कलह के चलते गंवा दे, वह कैसे कह सकता है सब कुछ ठीक है। आजादी के बाद लगातार और सबसे ज्यादा समय सत्ता में रहने से उत्पन्न अहम उसकी सबसे बड़ी समस्या है। कांग्रेस अपनी समस्याओं को आंतरिक बता कर हमेशा जवाबदेही से मुंह चुरा रही है उसे समझना चाहिए कि न तो यह किसी परिवार का आंतरिक मामला है और न ही वह कोई कारपोरेट हाउस है। वह एक राजनीतिक दल है, जिसे अपनी रीति-नीति के लिए जनसाधारण के प्रति भी जिम्मेदार-जवाबदेह होना चाहिए आज नहीं तो कल उसे इस सत्य का सामना करना पड़ेगा।

आज, सोनिया के अंतरिम अध्यक्ष -काल में यह धारणा और भी मजबूत हुई है कि फिलहाल तो मां-बेटे ही एक-दूसरे का विकल्प हैं। ऐसे में जनाधार वाले स्वाभिमानी नेता किनारा कर रहे  हैं या किनारे कर दिये जा रहे हैं और कुछ दरबारी केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं। वैसे कांग्रेस से शुरू हुई यह राजनीतिक विकृति तेजी से दूसरे दलों में भी फैल रही है। जनाधार वाले नेताओं से लगभग रिक्त कांग्रेस का किसी भरोसेमंद को खडाऊं अध्यक्ष बनाने से बेहतर होगा कि प्रियंका वाड्रा आगे बढ़कर मोदी और भाजपा से सीधा मोर्चा लेते हुए कांग्रेस के कायाकल्प की कोशिश करें। वैसे ही अब कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ ज्यादा शेष नहीं है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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