कुछ कीजिये खाली बैठे कामगार, कहीं और न चल दें / EDITORIAL by Rakesh Dubey

कितने आश्चर्य की बात है कि कोई भी राजनीतिक दल इस दुष्काल में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की ओर से नहीं खड़ा हुआ, जब लॉकडाउन की मुसीबतों का कहर टूटा यहां तक कि मीडिया को भी उन कामगारों की ओर अपना रुख करने में समय लगा, जो लाखों की संख्या में अपने घरों की लंबी दूरी तय कर रहे थे सच मायने में लॉक डाउन ने भारत को यह बता दिया है कि उसके यहाँ संगठित क्षेत्र से ज्यादा असंगठित क्षेत्र में कामगार है।2019 में देश में करीब 51 करोड़ कामगार थे, जिनमें से 94 प्रतिशत से ज्यादा खेतों, अनिगमित और असंगठित उद्यमों में कार्यरत थे संगठित क्षेत्र में सरकारी, सरकारी उपक्रमों और निजी उपक्रमों के कामगार शामिल हैं

2018 में संगठित क्षेत्र में करीब तीन करोड़ लोग कार्यरत थे, जिनमें से लगभग 2.30 करोड़ सरकार या सरकारी उद्यमों के कर्मचारी थे बाकी 70 लाख उस संगठित हिस्सेमें थे, जहां ट्रेड यूनियनें मुख्य रूप से सक्रिय हैं। सभी राजनीतिक दलों से संबद्ध मजदूर संगठन अपनी सदस्यता बढ़ाने और आकर्षक नियमित कमाई के लिए संगठित क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा करते हैं मजदूर संगठनों से जुड़े अधिकतर कामगार मध्य और उच्च मध्य वर्ग के हैं, लेकिन अपने घमंड में वे खुद को कामकाजी वर्ग नहीं मानते हमारे यहां ‘कामकाजी वर्ग’ एक ऐसा सामाजिक-आर्थिक श्रेणी है, जिसे ऐसे लोगों को इंगित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,जो ऐसे काम करते हैं, जिनमें कम वेतन मिलता है, सीमित कौशल की जरूरत होती है या शारीरिक श्रम करना पड़ता है ऐसे कामों में शैक्षणिक योग्यता बहुत कम जरूरी होती है

संगठित क्षेत्र का श्रम आम तौर पर महंगा है और उसकी उत्पादकता कम है। इससे ऑटोमेशन तथा ठेके पर कामकराने की व्यवस्था पर निर्भरता ही बढ़ती है वैसे ‘कामकाजी वर्ग’ की सुरक्षा की इस आर्थिक वास्तविकता ने औद्योगिक विस्तार को कुंद किया है औरठेके पर उत्पादन को बढ़ावा दिया ह यहां तक कि इससे पूंजी का देश से बाहर पलायन हुआ है ट्रेड यूनियन बनाने में अधिक मुश्किल नहीं है 70 कामगारों वाली फैक्टरी में सात लोग यूनियन बना सकते हैं

असंगठित क्षेत्र के कामगारों में आधे से कुछ अधिक (लगभग 27 करोड़) खेतिहर मजदूर हैं और बाकी सेवाओं, निर्माण और छोटे कारखानों में कार्यरत हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर निगरानी रखनेवाली प्रतिष्ठित संस्था सीएमआइई का आकलन है कि लॉकडाउन के बाद इनमें से 12.20 करोड़ का रोजगार छिन चुका है

इस दुष्काल में बड़ी संख्या में नियमित आमदनी वाले लोगों का रोजगार भी चला गया है, जिनमें 1.78 करोड़ वेतन भोगी कामगार और 1.82 करोड़ स्व-रोजगार करनेवाले लोग हैं गैर-कृषि कामों में लगे कामगारों में लगभग 10 करोड़ प्रवासी कामगार हैं आकलनों केअनुसार, ये लोग हर साल दो लाख करोड़ रुपये के आसपास की कमाई अपने घरों को भेजते हैं। विडंबना यह है कि ये प्रवासी ऐसे बाजार मेंकार्यरत हैं, जहां वेतन आपूर्ति , मांग के हिसाब से तय होती है हमारे देश में, जहां हर साल 60 लाख से एक करोड़ लोग काम की तलाश से जुड़ते हैं। वेतन या मजदूरी का स्तर हमेशा नीचे बनारहता है

मुश्किल हालातों में जीने के बाद जो इनके पास बचता है, वे उसे अपने परिवार को भेजते हैं। उनके पास यूनियन बनानेवालों के लिए बमुश्किल कुछ बच पाता है इनमें से ज्यादातर कामगार मजदूर ठेकेदारों पर निर्भर होते हैं, जिसे मजदूरों को मजदूरी के लिए चुनने का अधिकार होता है। इन ठेकेदारों से गांव में लिये कर्ज की वजह से भी कई मजदूर बंधे रहते हैं ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं है कि कोई भी राजनीतिक दल उनकी ओर से नहीं खड़ा हुआ, जब लॉकडाउन की मुसीबतों का कहर टूटा. यहां तक कि मीडिया को भी अपने कैमरे का रुख कामगारों की ओर करने में समय लगा, जो लाखों की संख्या में अपने घरों की लंबी दूरी तय कर रहे थे हाल के दिनों में कुछ राज्यों ने श्रम कानूनों के उन प्रावधानों को निरस्त कर दिया और कई तरह के बुनियादों अधिकारों से कामगारों को वंचित कर दिया गया है प्रवासी कामगारों की परेशानियां बढ़ती ही जायेंगी, अगर उनकी रक्षा के लिए कानून नहीं होंगे सरकार को फौरन कुछ करना चाहिए, खाली बैठे कामगार कहीं और न चल दें
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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