भोपाल। भोपाल की सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर की भोपाल में अनुपस्थिति को लेकर बहुत सारे सवाल उठाये जा रहे हैं।कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल का सवाल उठाना एक अलग विषय है, पर भोपाल के उन मतदाताओं का सवाल उठाना एक गंभीर बात है जिनके वोट से वे सांसद निर्वाचित हुई है। सवाल यह है की इस वैश्विक संकट में उनका भोपाल के मतदाताओं के प्रति कोई कर्तव्य था या नहीं। ऐसे संकट के अतिरिक्त एक जन प्रतिनिधि के क्या कर्तव्य है एक बहस का विषय है।
वस्तुत: एक विधायक और सांसद की भूमिका दोहरी होती है। पहली- विधायिका की मदद करना, इसके अंतर्गत वे सदन के अंदर अपने चुनाव क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखते हुए महत्वपूर्ण प्रस्तावों और मुद्दों पर बहस में भाग लेते हैं। अगर वे सदन अध्यक्ष द्वारा बनाई किसी कमेटी के सदस्य हैं तो उसमें भी उन्हें सक्रियता से भाग लेना चाहिए। दूसरी-अपने निर्वाचन क्षेत्र की देखभाल करना और इसकी मूलभूत जरूरतें जैसे कि बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, सिंचाई इत्यादि व्यवस्थाओं को सुचारु बनाए रखना। इसके अलावा अपने क्षेत्र में लोगों की उन निजी समस्याओं को सुनना जिन पर ध्यान देने की जरूरत होती है।
लोकसभा और विधानसभाओं में बहस का निरंतर पराभव हुआ है, यहां तक कि सत्रों की अवधि को बहुत कम कर दिया गया है। सत्र के दौरान भी देखा गया है कि सांसद-विधायक अपना ज्यादा समय सदन के बीचों-बीच आकर एक-दूसरे के विरुद्ध नारेबाजी करने में मशगूल रहते हैं। नतीजा यह कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों तक के लिए यथेष्ठ चर्चा करने का समय नहीं बचता, यहां तक कि धन-विधेयक भी माकूल चर्चा किए बिना पारित कर दिए जाते हैं। जहां तक नेताओं की अपनी निर्वाचन क्षेत्र के लिए बनती जिम्मेवारी की बात है उसके लिए नीतिगत दिशा-निर्देश नदारद हैं।
अगर जब कभी कोई सांसद या विधायक अपने इलाके या मुख्यालय में उपस्थित रहता है, तब भी ज्यादातर समय वह अपने भाई-बंधुओं और दरबारी किस्म के तत्वों से घिरा रहता है जबकि जिन लोगों ने उसे वोट देकर चुना होता है वे उस तक अपनी पहुँच इन लोगों के जरिए ही होती है ।अक्सर नेता के इर्द-गिर्द बाहुबलियों, दलाल, सुरक्षा कर्मियों का जमावड़ा होता है। इन लोगों में सम्माननीय व्यक्ति चंद ही पाए जाते हैं। वहां मौजूद अधिकारियों में ज्यादातर वही होते हैं जिनकी नियुक्ति विधायक या सांसद ने अपने प्रभाव से करवाई होती है, इन पर ही नियुक्तियों और स्थानांतरण समेत काम करवाने के लिए पैसे के लेन-देन के आरोप लगते हैं।
विकसित लोकतांत्रिक देशों की तर्ज पर हमारे यहां भी निर्वाचित नेताओं को अपने क्षेत्र में सचिवालय सरीखी सुविधा से लैस दफ्तर दिए जाने चाहिए, इस दफ्तर का काम जन समस्याओं का निदान होना चाहिए जो अभी अनहि ही होता है । जब सदन में सत्र न चल रहा हो तो विधायक-सांसद को इन दफ्तरों में बैठकर काम करना चाहिए। यहां तक कि उनकी अनुपस्थिति में इन दफ्तरों को अपना काम जारी रखना चाहिए ताकि जो लोग अपनी मुश्किलें बताने आएं उनको दर्ज कर निदान किया जा सके।
विधानसभा और लोकसभा सचिवालय में इन प्रतिनिधियों द्वारा किए जाने वाले कामों का लगातार लेखा-जोखा रखने की भी जरूरत है। लोकसभा सचिवालय में हर सांसद के साथ कुछेक प्रशिक्षित अनुसंधानकर्ता भी नियुक्त किए जाएं। ये विशेषज्ञ सांसद या विधायक को विधायिका संबंधी लंबित प्रस्तावों अथवा उन सवालों पर सलाह दे सकेंगे, जिन्हें वह सदन में उठाना चाहते हैं, इससे बहस का स्तर ऊंचा उठेगा। सांसद और विधायक अपने वेतन, भत्तों, मुफ्त सुविधाओं इत्यादि को लगातार बढ़वाते रहते हैं। अपने निर्वाचन क्षेत्र में दफ्तर बनाने हेतु कैसा आधारभूत ढांचा चाहिए इसके लिए निर्णय लेने का हक खुद उनके हाथ में है ताकि अपना काम सुचारु ढंग से कर सकें। इसके लिए उन्हें किसी से इजाजत लेने की जरूरत भी नहीं है। अभी इन दफ्तरों के नाम पर जो संरचना मिलती है, उसे दफ्तर नहीं कहा जा सकता ये तो शक्ति प्रदर्शन के अड्डे हैं।
इतना तो किया ही जा सकता है कि सभी विधायकों और सांसदों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि अपने क्षेत्र की जनता को समय-समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करें कि सदन में कितने दिन उपस्थित रहे, किस-किस विषय पर बहस में भाग लिया और अपने क्षेत्र के लिए कौन से विषय सदन में उठाए। इन रिपोर्टों का असर यह होगा कि निर्वाचन क्षेत्र के अंदर लोगों को पता चलेगा कि सदन में उनके जनप्रतिनिधि की कारगुजारी कैसी रही है। यह भी साफ़ पता लग जायेगा कि सदन के नाम पर निर्वाचन क्षेत्र और निर्वाचन क्षेत्र के नाम पर सदन का बहाना कितने दिन बनाया गया। स्थानीय निकाय स्तर पर चुने हुए प्रतिनिधियों के साथ समय-समय पर बैठकें करके उक्त ध्येय की प्राप्ति की जा सकती है। किसी संसदीय लोकतंत्र का समूचा ढांचा इस बात पर टिका होता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि सद्चरित्र, ईमानदार और बुद्धिमान व्यक्ति हो और उसमे देश को आगे ले जाने की ललक हो। यह राजनीतिक दलों की जिम्मेवारी है कि वे उक्त गुणों वाले लोगों को अपना उम्मीदवार चुनेंऔर जिन्हें टिकट दिया है वे कम सेकम संकट के समय मौजूद रहें।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।