क्या करें, जो इस आपदा में घर लौट आयें हैं ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। कल प्रतिदिन में मैंने यह सवाल उठा कर अपील की थी कि “दुष्काल : अनुत्तरित सवाल, आप भी हल खोजिये”। सवाल के जवाब में आलोचना और सवाल ही आये। प्रतिक्रिया देने वालों में समाज को बदलने की गलतफहमी पाले राजनीतिग्य, राजनीति से हाशिये पर धकेल दिए गये अब समाज सेवी, जीवन भर मलाईदार पदों पर तैनात अखिल भारतीय सेवा से निवृत अधिकारी, कुछ वर्तमान नौकरशाह और सबसे घटिया प्रतिक्रिया देने वाले नगर निगम के पार्षद हैं। इनमे से अधिकांश के पास इस कोरोंना दुष्काल से प्रभावित यहाँ-वहां भटकते मजदूरों के लिए एक ही उपाय है “सरकारी मदद”। सबकी सोचने की सीमा है, पर आज का सवाल है “क्या करें, जो इस आपदा में घर लौट आये हैं?” मेरे पास जवाब है,आपकी असहमति-सहमति आपका विषय।

कोई दो माह पहले बनारस गया था। एक साइकिल रिक्शा चालक चौक में मिला था। रिक्शे के हुड पर लिखा था। डॉ ---------, एम एस सी, पीएचडी। पूछने पर बताया बेरोजगारी के कारण रिक्शा चला रहा हूँ। रिक्शा अब खुद का हो गया है। पहले बैंक लोन पर था| हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार उसकी बातों से झलक रहा था। नौकरी के बारे में पूछने पर उसने दर्द भरा बयान दिया। पढने की ललक में गाँव का पुश्तैनी काम और खेती छूट गई और आरक्षण ने यहाँ नौकरी नहीं मिलने दी। यह शिक्षित का दर्द है, जो इस महामारी में लौटे हैं, उनमे से कई सिर्फ काम चलाऊ हिंदी, भोजपुरी, गुजराती,मारवाड़ी, छतीसगडी और उर्दू जानते हैं।

ऐसे लोगो के लिए विकल्प हैं परम्परागत व्यवसाय। ”पौनी पसारी” का नाम सुन आप भी अचरज में आ जायेंगे। यह संस्कृति से जुड़ा शब्द है। इसका संबंध परम्परागत रूप से व्यवसाय से जुड़े लोगों को नियमित रूप से रोजगार उपलब्ध कराने से था। बदलती हुई परिस्थितियों में जब गांवों ने नगरों का स्वरूप लिया तो इन कार्यों से जुड़े लोगों के लिए हर घर में जाकर सुविधा देने में दिक्कत होने लगी तब उनके लिए एक व्यवस्थित बाजार की कल्पना हुई। वर्तमान समय में युवाओं को रोजगार दिलाने में यह काम आज बहुत प्रासंगिक है।

उदहारण के लिए प्राचीन काल में दक्षिण कौशल अब का छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के सिरपुर में महानदी के किनारे एक सुव्यवस्थित बंदरगाह और एक बड़े व्यापारिक नगर के प्रमाण मिलते हैं। इतिहासकारों के अनुसार यहां तत्कालीन समय का व्यवस्थित सुपरमार्केट था। यहां अनाज, लौह शिल्प, काष्ठ, कपड़े आदि का व्यापार होता था, लेकिन वर्तमान परिवेश में विदेशी अंधानुकरण और मशीनीकरण के प्रयोग से परम्परागत व्यवसाय देश-दुनिया में सिमटता जा रहा है, देश के अन्य हिस्सों में छत्तीसगढ़ की भांति परंपरागत व्यवसाय होता था | उसे खोजने की जरूरत है।

दूसरा विकल्प कुटीर उद्ध्योगों का जाल। भारत में प्राचीन काल से ही कुटीर उद्योगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अंग्रेजों के भारत आगमन के पश्चात् देश में कुटीर उद्योगों तेजी से नष्ट हुए एवं परम्परागत कारीगरों ने अन्य व्यवसाय अपना लिया। किन्तु स्वदेशी आन्दोलन के प्रभाव से पुनः कुटीर उद्योगों को बल मिला और वर्तमान में तो कुटीर उद्योग आधुनिक तकनीकी के समानान्तर भूमिका निभा रहे हैं। अब इनमें कुशलता एवं परिश्रम के अतिरिक्त छोटे पैमाने पर मशीनों का भी उपयोग किया जाने लगा है। यहाँ रोजगार है, बाज़ार सरकार उपलब्ध कराए, देश में और विदेश में चीन की तरह।

जरा इस तरफ भी देखिये। आईआईटीखड़गपुर के रूरल टेक्नोलॉजी एक्शन ग्रुप रूटैग की ओर से जिले के परंपरागत व्यवसायों एवं रोजगारपरक कार्यों में नवीन तकनीक का समावेश कर रहा है। जिससे स्थानीय लोगों को अधिक लाभ मिल सके। कार्य क्या है चावल कूटने की मशीन, पैर से चलित मिट्टी के दीपक बनाने, सूतली बनाने, पैडल चलित चरखा सहित अन्य नवीन तकनीक की मशीनें तरह परंपरागत व्यवसाय कृषि, पशुपालन, मधुमक्खी पालन सहित अन्य व्यवसायों में नवीन तकनीक का समावेश। फिर बदहाली और कहाँ है और क्यों है ?

हकीकत यह है, इन विकल्पों को बल देने में समाज का “सफेद कॉलर” आगे नहीं आना चाहता, क्योंकि उसने मैकाले से साहबी और गुलाम बनाने की कला जो सीख ली है
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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