आज़ादी के 70 बरस बाद गरीबी हटाने की जगह करीबी छिपाने की कवायद के लिए यदि यह सरकार दोषी है, तो जरा उन पर भी विचार कीजिये जो इससे पहले सत्ता की मसनद पर मचकते रहे हैं ? आज इस बात छिपाने की जरूरत, भारत में आज और अब तक काबिज रहे सत्ता प्रतिष्ठानों के नाकारा होने के प्रमाण है। ये प्रमाण उन लोगो के साथ धोखा भी है जिन्हें वोट बैंक के लालच में यहाँ- वहां बसा दिया जाता है, हर चुनाव् में लालच या भयादोहन करके उनके वोट हासिल कर लिए जाते हैं |वैसे अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प अहमदाबाद ले जाने में कहीं कुछ ग़लत नहीं है। पहले भी भारत की सरकारें प्रमुख विदेशी मेहमानों को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में ले जाती रही हैं। अंतर इतना है की इस बार अहमदाबाद की ‘भव्यता’ और ‘रीवर फ्रंट’ की शान दिखाने के लिए, एक नई कवायद हो रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति की शोभा-यात्रा में इस बात का विशेष ध्यान रखा जायेगा कि देश की ग़रीबी पर दुनिया के सबसे धनी देश के राष्ट्रपति की नज़र न पड़ जाये। विरोधाभास देखिये एक ओर दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम का उद्घाटन कराया जा रहा है, वहीं हवाई अड्डे से स्वागत-समारोह के स्थान तक जाने की राह में दिखाई देने वाली एक छोटी-सी झोपड़पट्टी के सामने एक दीवार बनाकर गरीबी को छिपाने की कोशिश हो रही है।
यह सही है कि जब कोई मेहमान आता है तो घर को साफ-सुथरा दिखाने की कोशिश हम सब करते हैं, पर ‘भव्यता’ के चेहरे पर एक दाग़ की तरह दिखने वाली इस झोपड़पट्टी को अपने महत्वपूर्ण मेहमान की आंखों से बचाने की यह कोशिश क्यों ? बाकी दिनों में गरीबी हटाओ का नारा देने वाली सत्ता और प्रतिपक्ष को क्या सांप सूंघ जाता है ? पहले भी चीन के राष्ट्रपति और जापान के प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान भी इस झोपड़पट्टी को परदे में रखा गया था, इस बार दीवार ईंटों की बनायी जा रही है। पक्की दीवार। दीवार के साथ-साथ पेड़-पौधे भी लगाये जा रहे हैं ताकि दीवार भी सुंदर लगे। इन पौधों की विशेषता यह है कि ये उगाये नहीं जायेंगे, लगाये जायेंगे। अर्थात कहीं से लाकर उन्हें यहां रोप दिया जायेगा। और जैसा कि अक्सर होता है, विशेष मेहमान के जाने के बाद यह पौधे भी कहीं गायब हो जायेंगे।
लंबी दीवार से यह ‘गंदी बस्ती’ तो ढक जायेगी, पर क्या इससे वहां की या देश की गरीबी भी छिप सकेगी ? ‘बड़ेपन’ और इस ‘भव्यता’ को पांच सौ कच्चे घरों की बस्ती चुनौती दे रही है। भव्यता की इस होड़ में हम यह भूल रहे हैं कि होड़ हर भारतीय को बेहतर ज़िंदगी देने की होनी चाहिए।
आंकड़ो की बानगी देखिये जनगणना सन् 2011 के अनुसार देश की 22 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रही थी, इस रेखा के नीचे अब और लोग आ गये हैं । 2011 में बत्तीस से सैंतालीस रुपये प्रतिदिन का खर्च करने की क्षमता अब और घट गई है । सरकार को उम्मीद है कि सन् 2030 तक देश लगभग ढाई करोड़ परिवारों को ग़रीबी की रेखा से ऊपर लाने में सफल हो जायेगा, इसके लिए सबको काम करना होगा पर्दे, दीवार, मतभेद सबकुछ हटाकर। सबसे पहले लोभ लालच की राजनीति को तिलांजली देना होगा, तुष्टिकरण को भूलना होगा। भारत दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था में गिना जाता है।
आंकड़ों के आश्वासन से हकीकत नहीं छिपती। इक्कीसवीं सदी के भारत में, विकास के सारे दावों के बावजूद, देश की एक-चौथाई आबादी भरपेट भोजन नहीं पा रही है। हमारे नेताओं को यह बात कब समझ आयेगी? कब उन्हें लगेगा कि उनकी प्राथमिकताओं में कहीं कोई कमी है?शानदार इमारतें, ऊंची-ऊंची प्रतिमाएं, बढ़िया सड़कें, बुलेट की तेज़ी से चलने वाली रेलगाड़ियां… यह सब अच्छा लगता है। गर्व तो शायद तब होगा किसी झोपड़ी को किसी महल वाले से छिपाने की ज़रूरत महसूस न हो।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।