बढ़ते तलाक : तालमेल बैठाना जरूरी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

भारत के विवाहों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की “प्रोग्रेस ऑफ द वर्ल्ड्स विमिन २०१९-२० : ­फैमिलीज इन ए चेंजिंग वर्ल्ड” रिपोर्ट सामने आई है| जिसमें. भारत में नाकाम शादियों के आंकड़े तेजी से बढ़ने की बात कही गई है।रिपोर्ट के अनुसार पिछले  दो दशकों के दौरान तलाक के मामले दोगुना हो गए हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि एकल परिवारों की बढ़ती अवधारणा के कारण देश में एकल दंपतियों वाले परिवारों की संख्या बढ़ रही है।

यूँ तो रिपोर्ट पूरी दुनिया की तस्वीर पेश करती है, लेकिन इसमें अलग-अलग क्षेत्रों और देशों की स्थिति को वहां की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि और कायदे-कानूनों की रोशनी में देखने का प्रयास किया गया है। दुनिया के अलग-अलग देशों में तलाक बढ़ने की जो भी पृष्ठभूमि हो, भारत के सांस्कृतिक परिवेश में यह कोई सामान्य बात नहीं है। पिछले दो-ढाई दशकों में देश में महिलाओं की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के मोर्चे पर जो बदलाव आए हैं उनकी तुलना उससे पहले के दशकों से नहीं की जा सकती। आज की आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और उच्च शिक्षित युवतियां स्वाभाविक रूप से परिवार से जुड़े फैसलों में भी भागीदारी चाहती हैं। अपनी सोच और समझ को लेकर वे अपनों से स्वीकार्यता चाहती हैं। लेकिन अधिकतर परिवार के अंदर का माहौल इस बदलाव को आत्मसात नहीं कर पा रहा। इसमें कहा गया है कि अगर एसडीजी (सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स) का लक्ष्य हासिल करना है तो परिवार के अंदर जेंडर इक्वलिटी स्थापित करनी होगी।

रिपोर्ट इस बात को  रेखांकित करती है कि बीते दो दशकों में महिलाओं के अधिकार काफी बढ़े हैं, लेकिन परिवारों में मानवाधिकार उल्लंघन और लैंगिक असमानता के मामले घटे नहीं हैं। वे लगभग जस के तस हैं। हालांकि परिवार और समाज का पूरा ढांचा अब काफी हद तक बदल गया है। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ले चुके हैं। लेकिन इन परिवारों में भी पुरुष पारंपरिक सोच से मुक्त नहीं हो पाए हैं। इस सोच से उपजी अपेक्षाओं पर आज की महिलाओं का रिस्पॉन्स इतना अलग होता है कि पारंपरिक सोच में उसका फिट बैठना मुश्किल होता है। यह स्थिति उन टकरावों को जन्म देती है जिन्हें संवाद की कमी, असहिष्णुता और संवेदनहीनता जैसे कारक तलाक तक ले जाते हैं।

 आज हालत  है कि उच्च शिक्षित और आर्थिक रूप से सक्षम पति-पत्नी एक दूसरे की बात सुनना-समझना जरूरी नहीं मानते। एक समय में शादी के रिश्ते में सामंजस्य और समझौते लड़कियों की अनकही जिम्मेदारी हुआ करते थे। तब सामाजिक और आर्थिक निर्भरता के चलते इस जिम्मेदारी को निभाना महिलाओं की मजबूरी बन जाया करती थी। अब शिक्षा के जरिए हासिल आर्थिक आत्मनिर्भरता ने लड़कियों की वह मजबूरी खत्म कर दी है। आज की पढी-लिखी और काम करने वाली लड़कियां उम्मीद करती हैं कि रिश्ता निभाने की कोशिश दोनों ओर से की जाए। ऐसे में शादी के बंधन को बचाए रखने के लिए लड़कियों के मन को समझने और उनका साथ देने वाली सोच की दरकार है।

ख़ास तौर पर भारत में नाकाम शादियों की बढ़ती संख्या केवल एक आंकड़ा भर नहीं है। यह हमारे सामाजिक ताने-बाने के बिखरने की कहानी है। एक तरफ परिवार टूट रहे हैं लेकिन इसका कोई विकल्प समाज में अभी विकसित नहीं हो पाया है। ऐसे में अगर इसे बचाने और स्वस्थ रूप देने की कोशिश नहीं हुई तो कई पीढ़ियों को इसकी त्रासदी झेलनी पड़ सकती है। यह तथ्य गौर करने लायक है कि भारत में शादी के पहले ५ साल में ही तलाक की इच्छा रखने वाले युवाओं के हजारों मामले कोर्ट में चल रहे हैं। मामूली अनबन और मनमुटाव भी अब तलाक का कारण बन रहे हैं। जरूरी है कि अब समाज और परिवार महिलाओं की काबिलियत तथा आगे बढ़ने की उनकी इच्छा को समझे, उसका सम्मान करे। एक-दूसरे से तालमेल बैठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और इसके   बिना कोई परिवार नहीं चल सकता, यह अब महिलाओं को ही नहीं, पुरुषों को भी समझना होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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