नई दिल्ली। पिछले साल की छाया में इस नए साल का आगाज हुआ है, 8 जनवरी को कुछ राजनीतिक दल “भारत बंद” भी कर रहे हैं। पिछले साल देश के अर्थात हमारे भारतीय संविधान पर क्रूर हमले हुए। इस साल हमलों की शक्ल बदल रही है, पर वे बदस्तूर जारी हैं। इन हमलों से भारतीय संविधान और हमारे स्वाधीनता आंदोलन के तमाम उदात्त मूल्य बुरी तरह क्षत-विक्षत हुए हैं। जो विश्व में हमारी पहचान थे। कुछ संगठन इसे अपने लिए उपलब्धियां मान सकते हैं, परन्तु न तो सरकार को और न प्रतिपक्ष को इसे उपलब्धि मानना चाहिए। दोनों ही कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।
सरकार का दायित्व राज धर्म निभाना होता है तो प्रतिपक्ष का दायित्व सरकार की आलोचना–समालोचना सुझाव सहित। इससे इतर हिंसा आगजनी, पाकिस्तान के समर्थन में नारे, किसी सरकार का विरोध नहीं बदला होता है। भारत का संविधान और इससे बने कानून इसकी इजाजत किसी को नहीं देते। चाहे भारत तेरे टुकड़े होंगे या इंदौर में आग लगाने की बात। ये दोनों असहय बातें हैं, संविधान विरोधी हैं और इनकी सीमा अपराध के करीब नहीं, बल्कि अपराध ही है। इस सबके पीछे देश में बनते बेमेल राजनीतिक समीकरण और सत्ता पाने की भूख है। कुछ जगह इन फार्मूलों से सफलता भी मिली है, जोड़-तोड़ से सरकारें बनी और बिगड़ी हैं। इससे देश की शांति भंग हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती।
महबूबा मुफ्ती की सरकार का बनना और गिरना फिर राष्ट्रपति शासन। यह कार्रवाई विवादास्पद रही और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने कुछ और कहा सरकार ने कुछ और। भारत के अखबारों तथा टीवी चौनलों के एक बड़े हिस्से ने ऐसा माहौल बनाया कि बेरोजगारी और डूबती अर्थव्यवस्था के बावजूद सरकार की लोकप्रियता चरम पर है और लोकसभा चुनाव की बाजी सरकार के पक्ष में गई। दूसरी और कांग्रेस में राज्य विधानसभाओं के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद राहुल गांधी के विजयी रथ को उनके ही सिपहसालारों ने रोक दिया। पार्टी के बड़े नेताओं ने उनका साथ नहीं दिया और कांग्रेस भाजपा को कोई बड़ी चुनौती नही दे पाई। कांग्रेस बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते वह समूचे विपक्ष को एकजुट करने में विफल रही। केंद्र में सरकार की वापसी और विपक्ष का दारुण पराभव से लिखी पटकथा पर अब तो अगिया बेताल का खेल चल रहा है।
हमारा दुर्भाग्य है कि देश में पाकिस्तान के नाम का इस्तेमाल राजनीतिक दल देश के मुसलमानों को डराने के लिए करते हैं और अभी भी कर रहे हैं। हाशिये से भी बाहर खड़ा वामपंथ न तो,खुद कुछ कर पा रहा है और न कांग्रेस के हाथ मजूबत कर पा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा भी अपनी सरकार को आर्थिक मुद्दे पर कोई सलाह नहीं दे पा रही है। बेरोजगारी और महंगाई बढ़ने तथा जीडीपी के नीचे खिसकने का सिलसिला इतना तेज है कि यह साल, इस मामले में भी इतिहास रच रहा है। कमजोर पडती अर्थव्यवस्था को गतिशील करने के नाम पर एक ओर कॉरपोरेट सेक्टर को ढाई लाख करोड़ से ज्यादा की रियायत टैक्सों तथा दूसरे माध्यमों से दिया जाना और आगे भी छूट देने के आश्वासन कोई सफल नीति नहीं है। मुनाफा कमा रहे सरकारी उपक्रमों औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को बेचने का सिलसिला भी घातक है। इसका विरोध होना चाहिए पर बस, ट्रेन, पुलिस थाने जलाकर या पुलिस पर पथराव करके नहीं और देश तेरे टुकड़े होंगे या पाकिस्तान जिंदाबाद करके तो बिलकुल नहीं।
संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण के मामले में भी देश रिकार्ड तोड़ रहा है इसे बचाने का दायित्व हम सब पर है। राजनीतिक दलों की गिरोह बंदी आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकार छीनने पर उतारू है। इन अधिकारों का मूल आधार भाईचारा है जिसे राजनीति समाप्त कर रही है |ये राजनीतिज्ञ हम भारतीय को “हम” शब्द से महरूम करना चाहते है। “हम” का बंटवारा हिन्दू और मुसलमान में करना चाहते है, इनके लिए ये वोट बैंक हो सकता है पर हम भारतीयों की पहचान तो उस भाईचारे से है, जो संविधान बनने से भी पहले से चला आ रहा है। किसी के झांसे में मत आइये, देश को बचाइए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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