फिर भी, ऐ ! देश तुझे सलाम | EDITORIAL by Rakesh Dubey

कल २६ जनवरी २०२० है |  हमारा गणतंत्रता दिवस कहने को हम आजाद हैं, एक पूर्ण गणतांत्रिक ढांचे में स्वतंत्रता की सांस ले रहे हैं। चाहे वैधानिक स्वतंत्रता हो या फिर वैचारिक स्वतंत्रता, या फिर हो सामाजिक और धार्मिक स्वतंत्रता, आज हम हर तरह से स्वतंत्र हैं, पर क्या सचमुच हम स्वतंत्र हैं? क्या हमारी गणतंत्रता हमें गणतंत्र राष्ट्र का स्वतंत्र नागरिक कहलाने के लिए काफी है? विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के गिरते चरित्र ने आज गणतंत्र के सम्मुख अनेक चुनौतियां खड़ी की हैं, जिनसे देश का आम आदमी प्रभावित है।  गण पर तंत्र पूरी तरह हावी है।

देश के कर्णधार लंबे-चौड़े भाषण देने और जनता को आश्वासनों की घुट्टी पिलाने के अभ्यस्त हैं। आज विकास के   दिवास्वपनों का क्या वास्तविकता में कोई आधार है? बुनियादी आर्थिक कारक तो इससे उल्टी ही कहानी कहते नजर आ रहे हैं, ऋणों का बढ़ता बोझ है जो कम होने का नाम नहीं ले रहा है। विदेशी ऋणों का ब्याज आदि को भुगतान का बोझा उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां पिछले कुछ वर्षों से तो शुद्ध रूप से पूंजी का देश से बाहर की ओर ही प्रवाह हो रहा है, पहले जो ऋण लिए गए हैं उनसे संबधित भुगतानों की भरपाई के लिए ही नए ऋण लेने पड़ रहे हैं। देश के विकास के बड़े-बड़े आंकड़े है और इन आंकड़ों की सीढियों पर खडे होकर हम देश की प्रगति और विकास का नाप-तौल करते है,तो  यह तमाम आंकड़े झूठे लगते है, गरीबी की रेखा अब बढ़ती नहीं बल्कि  और गहरी होती हुई दिख है। करोड़ों लोग आज भी खुले आसमान के तले सोते है।लाखों  लोगों को आज भी दो वक्त का खाना नसीब नहीं हो रहा है। न उनके लिए रोटी और न उनके लिए दवा का पूरा इंतजाम है। ऐसा लगता है देश निष्प्राण हो रहा है | आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और अलगाववाद के त्रिकोण में धसा देश का गणतंत्र छटपटा रहा है |

 सांप्रदायिकता, आतंकवाद अब सिर्फ खतरा नहीं हैं, बल्कि भारी चुनौतियां भी हैं। वास्तव में कुछ ताकतें सांप्रददायिक धु्रवीकरण को तीखा करने की कोशिश कर रही हैं। आज देश में निजीकरण की नई आर्थिक नीतियों को लागू किया जा रहा है, उससे मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं, लोगों की खाद्य और सामाजिक सुरक्षा खतरे में पड़ गई है और इन सबके चलते हो रहे सांस्कृतिक पतन के कारण खासकर युवा वर्ग कुंठा और निराशा के गर्त में  डूब रहा है। इसकी वजह से जो व्यापक जन-अंसतोष पैदा हुआ है, उसको सांप्रदायिक ताकतों ने आम लोगों की धार्मिक भावनाओं को शोषण कर बड़ी चालाकी से भुनाया है।

 देश आज भी आरक्षण के ताने-बाने में उलझा है और युवाओं को अभी तक वह परिवेश नहीं मिल सका है, जिसकी इस देश को वास्तविक रूप से आवश्यकता है। इस गणतंत्र की आत्मा पर कई बार कभी ‘भागलपुर नरसंहार’, यूपी के कई जिलों के साम्प्रदायिक दंगे, इन्दिरा गांधी की मौत पर भडक़े दंगों, तो ‘गुजरात दंगों’ के इतने गहरे घाव लगे हैं कि डर लगता है कहीं ये नासूर ना बन जाए|

देश में मुठ्ठी भर चेहरे हंसते हुए दिखते हैं परन्तु लाखों चेहरों पर अब भी उदासी के बादल छाए हुए दिखाई दे रहे हैं। इस समय राष्ट्र एक बडे नैतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। नए मूल्यों को स्थापित करने का दावा करने वाले स्वंय इतने भ्रमित दिख रहे है उनकी कथनी और करनी पर विश्वास नही किया जा सकता है। सारे देश में भ्रष्टाचार व्याप्त है, जो  अपनी पराकाष्ठा को पार कर रहा है।  

 आम आदमी के लिए  चूल्हों को जलाना मुश्किल हो रहा  है। एक वही वर्ग फूल फल रहा है जो वर्ग काले पैसे की कमाई से  शासन और समाज पर हावी हो गया है, और राजनीति और समाज का नेतृत्व कर रहा है।   परिणाम गण और तंत्र अलग हो गए है। नौकर शाही हावी है नौकर शाही का रवैया भी वही अंग्रेजो जैसा है, जिनके समक्ष जनता तो मक्खी-मच्छर है। नारी की अस्मिता सुरक्षित नहीं है। ऐसा लगता है की जैसे इन पर लगाम लगाने वाला कोई नही हैं। जिन्हे लगाम सौपी गई है वे स्वयं कायर सिद्ध हो रहे है | देश से प्रेम करने वाले  कुछ लोग उसकी श्रेष्ठता के लिए काम कर रहेहैं उनसे ही कुछ आशा है उन्हें सलाम और साथ में देश को भी |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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