अंतर्विरोधी विपक्ष और भाजपा विरोध | EDITORIAL by Rakesh Dubey

आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और बेलगाम महंगाई जैसी चुनौतियों की वजह से मोदी सरकार अपने शासनकाल के सबसे कठिन दौर में है। इसका मुकबला करने और वैकल्पिक व्यवस्था देने वाला विपक्ष भी छितरा हुआ हुआ है। सोनिया गांधी द्वारा दिल्ली में बुलायी गयी विपक्षी दलों की बैठक इसी विपक्षी एकजुटता का संदेश देने में असफल रही। इस बैठक में 15 दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया, लेकिन उससे बड़ी बात यह थी कि तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, द्रमुक, टीडीपी, आप और शिवसेना सरीखे महत्वपूर्ण दल इससे दूर रहे। इन दलों ने अलग-अलग कारणों से बैठक से दूर रहने के संकेत दिये हैं, पर कुल मिलाकर जो संदेश गया है, वह विपक्ष में अंतर्विरोंधों का ही है।

जैसे बसपा सुप्रीमो मायावती ने राजस्थान में अपने दल के छह विधायकों को कांग्रेस द्वारा तोड़ लिये जाने के विरोध में बैठक में न आने की बात कही। सही भी है, अशोक गहलोत सरकार को किसी संभावित संकट से बचाने के लिए राजस्थान में बहुमत बढ़ाने की कांग्रेस की बेचैनी समझी जा सकती है, लेकिन गैर भाजपाई खेमे के दलों में ही सेंधमारी से परस्पर विश्वास बढ़ने के बजाय घटेगा ही, यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए। लोकसभा चुनाव में, सपा से अप्रत्याशित गठबंधन की बदौलत ही सही, बसपा अब भी उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस से बहुत बड़ी पार्टी है। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश सरीखे पड़ोसी राज्यों में भी उसका कुछ तो  जनाधार है।   भाजपा के विरुद्ध लड़ाई में वह कांग्रेस की असरदार सहयोगी साबित हो सकती है, लेकिन सेंधमारी के चलते तो वह सहयोग संभव नहीं। मध्यप्रदेश  में निलम्बित बसपा विधायक की कांग्रेस में बढती पींगों से भी मायावती खफा हैं |

वैसे मायावती खुद भारतीय राजनीति के अविश्वसनीय किरदारों में से एक है, लेकिन तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद अपने परंपरागत जनाधार पर उनकी बरकरार पकड़ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। खासकर उत्तर प्रदेश में मायावती कतई नहीं चाहेंगी कि कांग्रेस फिर से अपने पैरों पर खड़ी हो पाये। कारण भी बहुत साफ है कि बसपा जिस दलित-मुस्लिम जनाधार पर खड़ी है, वह दशकों तक कांग्रेस का परंपरागत जनाधार रहा है। पर अब मात्र दलित वोट बैंक के बल पर मायावती की बड़ी राजनीति संभव नहीं।

कांग्रेस-सपा के खट्टे-मीठे रिश्तों के मूल में भी यही एक वजह है। सपा का मुख्य जनाधार मंडल से मुखर हुआ अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी रहा है, जिसमें से अब मुख्यत: यादव ही उसके पास बचे हैं, जो अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ मिल अनेक सीटों पर विजयी समीकरण बनाते हैं। सपा को भी यही डर है कि मजबूत कांग्रेस मुस्लिम मतों को आकर्षित कर सकती है, जिसका परिणाम सपा की कमजोरी के रूप में आयेगा। ऐसे में भाजपा-विरोध के मुद्दे पर एकमत होते हुए भी कांग्रेस-सपा-बसपा का एक साथ आ पाना शायद ही कभी संभव नहीं होगा ।

अब पश्चिम बंगाल - इसमें दो राय नहीं कि लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के शून्य पर सिमट जाने के बाद वहां के मुख्यमंत्री एवं पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल के मौन हो जाने पर सिर्फ ममता ही केंद्र सरकार, उसकी नीतियों और भाजपा की सबसे मुखर आक्रामक आलोचक रह गयी हैं। पश्चिम बंगाल में वह जिस तरह घूम-घूम कर एनआरसी और सीएए के विरोध में धरना-प्रदर्शन कर रही हैं, वैसा कोई दूसरा विरोधी दल नहीं कर पा रहा। इसके बावजूद इन्हीं मुद्दों पर कांग्रेस  द्वारा आयोजित बैठक में खुद आना तो दूर, अपना प्रतिनिधि तक भेजना जरूरी नहीं समझा, मामला नीतियों से ज्यादा नेतृत्व का है। मूलत: कांग्रेसी ममता ने लंबे समय तक आलाकमान के दरबारियों से अपमानित होने के बाद अपनी अलग पार्टी बनायी सत्ता पर काबिज वाम मोर्चा को बेदखल किया।

अब विशुद्ध सत्ता केंद्रित हो गयी भारतीय राजनीति में विचारधारा, नीति, सिद्धांत अब लगभग अप्रासंगिक होकर रह गये हैं, हो सकता है कि आप और अरविंद केजरीवाल ही कभी भाजपा के साथ खड़े हों। यह वही केजरीवाल हैं जो पिछले साल लोकसभा चुनाव में दिल्ली में और फिर विधानसभा चुनाव में हरियाणा में कांग्रेस से गठबंधन के लिए आतुर थे। अब अगर सहमति वाले मुद्दों पर भी वह कांग्रेस के साथ नहीं खड़े दिखना चाहते तो उसके मूल में भी चुनावी राजनीति ही है। देश को इन सब से अलग एक राष्ट्रीय हित सोचने वाला राजनीतिक उपकरण चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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